Saturday, May 16, 2009

किसी को नहीं चाहिए राजनीतिक कार्यकर्ता

क्रांति प्रकाश

पिछले कुछ दशकों में भारतीय राजनीति और राजनीतिक दलों में ढेरसारे बदलाव आए हैं और ये बदलाव चौतरफा हैं। इस दौरान राजनीति के मायने तो बदले ही हैं, राजनीतिक दलों के कामकाज के तौर-तरीकों में भी भारी बदलाव आया है। इस बदलाव का एक परिणाम यह भी है कि राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता गायब होते जा रहे हैं। सच बात यह है कि वामदलों को छोड़कर तमाम पार्टियों में कार्यकर्ताओं का टोटा है और भारतीय लोकतंत्र के लिए यह अच्छा संकेत नहीं है। इस मामले को लेकर राजनीतिक दलों की अंदरूनी सोच क्या है, यह तो मालूम नहीं, लेकिन तरह से तमाम पार्टियां कार्यकर्ताओं की अनदेखी कर रही हैं, उससे तो यही लगता है कि वे कार्यकर्ताओं से पीछा छुड़ाने में ही भलाई समझने लगे हैं। सवाल है कि ऐसा क्यों है?


पहला कारण तो यह है कि हमारे राजनीतिक दल इन दिनों व्यवसायिक घरानों की तर्ज पर कार्य करने लगे हैं। शीर्ष स्तर पर जितने भी निर्णय लिए जाते हैं, उसमें तमाम फैसले हाईकमान के स्तर पर लिए जाते हैं। जहां थोड़ा बहुत आंतरिक लोकतंत्र है, वहां भी मुश्किल से दर्जनभर लोग यह तय कर देते हैं कि अमुक राज्य या अमुक चुनाव के लिए क्या अच्छा रहेगा। कहने को कहा जाता है कि पार्टी ने फैसला लेने से पहले राज्य के प्रभारी की राय ली थी और गुप्त सर्वे तो बाजार से ही करवाया जाने लगा है। पहले राजनीतिक दलों के अपने कार्यकर्ता यह कार्य किया करते थे। वे पार्टी नेतृत्व को बताते थे कि जनता की समस्या क्या है, वे पार्टी या सरकार से क्या चाहते हैं। चुनाव के लिए उम्मीदवार तय करने में कार्यकर्ताओं की राय अहम मानी जाती थी, इसलिए इंदिरा गांधी जैसी नेता भी हर रोज सैकड़ों लोगों से मिलती थीं।
अब मामला दूसरा है। वो दिन गए, जब कार्यकर्ता ही आगे चलकर देश और पार्टी में महत्वपूर्ण पद संभालता था। पहले किसी भी पार्टी में प्रवेश का रास्ता यही होता था कि पार्टी की प्राथमिक सदस्यता ली जाए। लेकिन अब यह जरूरी नहीं, हर पार्टी को किसी गोविंदा और किसी संजय दत्त की तलाश रहती है। जमाना हवाई नेताओं का है और यह साबित हो चुका है कि प्रधानमंत्री बनने के लिए भी अच्छा नेता होना या चुनाव जीतना जरूरी नहीं है। आज नेता होने के लिए पैसा और बाहुबल ही काफी है। ऊपर से नीचे तक पैसे का लेन-देन होने लगा है। माग्रेट अल्वा का मामला-ज्यादा पुराना नहीं है। कुछ पार्टियां तो खुलेआम टिकट की बोली लगाती हैं। साफ है कि अब राजनीति और लोकतांत्रिक परंपराओं का रत्तीभर भी ज्ञान होना अच्छा माना जाने लगा है। क्योंकि तभी तो वह व्यक्ति हाईकमान की तमाम बातों की हां में हां मिलाएगा।
सोमनाथ चटर्जी जैसे पुराने नेताओं को इसका अफसोस होता है कि अब संसद में वैसी बहस नहीं होती, जैसे पहले हुआ करती थी। अब संसद में शोरगुल ज्यादा होता है और महत्वपूर्ण मसलों पर बहस के दौरान ज्यादातर सांसद सदन से गायब रहते हैं। सवाल है ऐसा क्यों नहीं होगा? जब संसद में ऐसे लोग जाएंगे, जिन्हें देश और समाज के बारे में कुछ नहीं पता, तो ऐसा ही होगा। यकीन मानिए जिस परमाणु करार को लेकर इतना हंगामा हुआ, उसके बारे में मुश्किल से 10 फीसदी सांसदों को ही थोड़ बहुत पता था। ज्यादातर सांसद अपने नेताओं को खुश करने के लिए परमाणु करार का विशेषज्ञ होने का दिखावा कर रहे थे। कार्यकर्ताओं की उपेक्षा के पीछे एक और सोच काम कर रही है। ज्यादातर नेताओं का मानना है कि आधुनिक संचार माध्यमों खासकर टेलीविजन के जमाने में जनता तक अपनी बात पहुंचाने के लिए कार्यकर्ताओं पर निर्भर होना, समय और संसाधन की बर्बादी है। इसी सोच को लेकर एनडीए सरकार इंडिया शाइनिंग लेकर आई थी और वर्ष 2004 के आम चुनाव में गच्चा खा बैठी।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में कार्यकर्ताओं की भूमिका अहम होती है। वे केवल जनता नेता के बीच संवाद का माध्यम होते हैं, बल्कि नेताओं को जवाबदेह भी बनाते हैं। जनता में राजनीतिक चेतना जगाने में निचले स्तर के कार्यकर्ताओं का अहम योगदान होता है। अस्सी के दशक तक वोटरों को बूथ तक लाने में इन कार्यकर्ताओं का बड़ा योगदान होता था। आज इस काम के लिए भाड़े पर आदमी रखे जाते हैं, जिनका किसी दल और विचारधारा से कोई लेना-देना नहीं होता। वे महज पैसे के लिए काम करते हैं और इस काम के लिए ऐसे लोगों को चुना जाता है, जिन्हें आसपास के इलाकों में शरीफों की श्रेणी में नहीं रखा जाता। जनता जब देखती है कि राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ताओं की जगह असामाजिक तत्वों ने ले ली है तो वह राजनीति से मुंह चुराने लगती है। और मेरा मानना है कि इसी का नतीजा है कि लोग अब वोट देने से बचना चाहते हैं। देश में और राजनीतिक दलों में लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम रहे। इसके लिए यह जरूरी है कि निचले स्तर पर समर्पित कार्यकर्ताओं को तैयार किया जाए। सही मायनों में भविष्य के नेताओं का प्रशिक्षण यहीं होता है। वैसे भी संसदीय प्रणाली को चलाने के लिए लाखों समर्पित कार्यकर्ताओं की जरूरत होती है। पार्टी और सरकार के महत्वपूर्ण पदों पर बाहुबली या गैर राजनीतिक लोगों को बिठाया जाएगा तो परिणाम अच्छा नहीं होगा। ये लोग चुनाव तो जीत सकते हैं, लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में ढलकर काम करेंगे, यह मुश्किल है। शासन में संवेदनहीनता की एक बड़ी वजह राजनीति में ऐसे लोगों का प्रवेश है, जिन्हें आम लोगों के सरोकार से कोई मतलब नहीं है। इसलिए यह जरूरी है कि राजनीतिक दल समर्पित कार्यकर्ताओं की पौध को बचाने की कोशिश करें और उन्हें उचित सम्मान दें। लोकतांत्रिक व्यवस्था में पद, पैसा, प्रचार और परिवार के बोलबाले को लगाम लगाना है तो समर्पित कार्यकर्ताओं को आगे लाना होगा।

5 comments:

  1. अच्छा विश्लेषण...और अंत में अच्छी स्वप्नजीविता...

    स्वागत...

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  2. मान्यवर, हिंदी ब्लॉगिंग जगत में आपका स्वागत है. आशा है कि हिंदी में ब्लॉगिंग का आपका अनुभव रचनात्मकता से भरपूर हो.

    कृपया मेरा प्रेरक कथाओं और संस्मरणों का ब्लौग देखें - http://hindizen.com

    आपका, निशांत मिश्र

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  3. हिन्दी ब्लॉग की दुनिया में आपका तहेदिल से स्वागत है.....

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  4. बहुत ही सही आकलन .
    सच तो यह है कि सभी दलोन मे तथाकथित कार्यकर्ता ’ सिर्फ़ ’ सत्ता के दलाल ’ ही रह गये हैन .सिर्फ़ जनता के दोहन के लिये .

    आप्के सम्यक विचारोन का स्वागत है !

    आप का स्वागत और ऐसे विचारोन पर बधायी भी .भी

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