Sunday, June 6, 2010

पर्यावरण बचाना होगा

विश्व पर्यावरण दिवस के मौके पर प्रकृति को बचाने की चिंता सेमिनारों और जटिल तकनीकी शब्दावलियों की पृष्ठभूमि में सार्थक परिणति तक नहीं पहुंच रही है। सच तो यह है कि पर्यावरण पर होने वाले बहस के दायरे को अब विकास के कुछ तकनीकी मानदंडों और प्रौद्योगिकी के हेरफेर की बहस से आगे सभ्यतामूलक विमर्श पर ले जाना होगा। सवाल यह उठता है कि हर पर्यावरण दिवस के सालाना जलसे में हमें मर्सिया पढ़ने की जरूरत क्यों होती है? पर्यावरण के क्षय के लिए जिम्मेदार कारक तत्व आखिर कौन से हैं। स्टॉकहोम से लेकर रियो द जेनेरियो और कोपेनहेगेन तक काफी आंसू खर्च करने के बाद मानव जाति पर आसन्न इस संकट के समाधान के बारे में कोई सर्वसम्मति क्यों नहीं बन पा रही है। कल तक केवल कार्बन उत्सर्जन के नाम पर होने वाली बहस की दिशा भी अब काफी भयंकर रुख अख्तियार कर चुकी है। तथाकथित विकास के नाम पर पौधों और जंतुओं की कई प्रजातियां अब तक या तो विलुप्त हो चुकी हैं या खत्म होने के कगार पर पहुंच चुकी हैं। जैव-विविधता पर पैदा हुए इस खतरे ने कई जगह पारिस्थितिकीय असंतुलन की भयानक समस्या पैदा कर दी है। सचाई यह है कि विकास की ओर बढ़ने वाला हमारा हर कदम पर्यावरण के विनाश को निमंत्रण देता है। अब तो विकास नीतियों के पैरोकार यह जुमला दोहराते हुए भी नहीं थकते कि अब पर्यावरण को बचाने के लिए विकास की दिशा तो नहीं मोड़ी जा सकती। कई देशों में तो अब यह बहस भी आम हो गई है कि पर्यावरण का नाश घाटे का सौदा है या फायदे का। शीत या शीतोष्ण कटिबंध से जुड़े देशों में यह तर्क दिया जाने लगा है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमाच्छादित भूमि का बड़ा हिस्सा खाली होगा, जिसका कृषि भूमि के रूप में उपयोग किया जा सकेगा। साथ ही, धूप खिलने के समय में विस्तार होने से एक साल में कई फसलें ली जा सकेंगी। यही वे प्रच्छन्न तर्क हैं, जिनके कारण अब तक समाधान का रास्ता नहीं निकला है। वे आवश्यकताएं ही थीं, जिनका प्रकृति से तालमेल न बिठा पाने के कारण डायनासोर जैसे जीव धरती से खत्म हो गए, और अब ‘जुरासिक पार्क’ जैसी फिल्मों में उनके एनिमेटेड प्रतिरूपों के दर्शन कर हम दांतों तले उंगली दबा रहे हैं। क्या आदमी की महत्वाकांक्षाएं भी इसी दिशा में जा रही हैं? फिर तो हमें अपनी आवश्यकताओं पर अपनी अस्तित्व की रक्षा को तरजीह देनी होगी। बापू ने कभी कहा था कि प्रकृति हर आदमी की जरूरतें तो पूरी कर सकती है, लेकिन किसी एक आदमी का लोभ पूरा नहीं कर सकती। आज हर आदमी प्रकृति के प्रति इस कदर लोभी हो चुका है कि अपने अस्तित्व के लिए जरूरी चीजों को भी खत्म करने को आमादा है । मर्ज पैदा कर औषधि उद्योग के विकास का मार्ग तलाशने वाली व्यापारिक सभ्यता में पर्यावरण के सवाल कभी-कभी तो लोगों को बेमानी से लगते प्रतीत होते हैं। खासकर वाहनों की संख्या पर लगाम लगाने के लिए योजना बनाए बगैर कार्बन उत्सर्जन पर होने वाला विलाप एक विद्रूप भर है। इसलिए पर्यावरण के क्षय और उससे होने वाले मानव जाति के महाक्षय की प्रक्रिया को रोकने के प्रति अगर हम वाकई गंभीर हैं, तो हमें प्रकृति प्रदत्त संसाधनों के धीमे दोहन और उनकी भरपाई के उपायों को विकास के प्रतिमानों में प्राथमिकता के स्तर पर रखना होगा। इसके बगैर बेकार की प्रतिक्रियाओं से न तो पर्यावरण का भला होगा और न मानव का अस्तित्व ही सुरक्षित रह पाएगा।

Sunday, February 21, 2010

बधाई के पात्र हैं जयराम रमेश

उदारीकरण की राह पर तेजी से आगे बढ़ रही केंद्र सरकार से शायद ही किसी को उम्मीद थी कि वह बीटी बैंगन की पैदावार पर रोक लगा सकती है। यही वजह है कि जब केंद्रीय वन एवं पर्यावरण राज्यमंत्री जयराम रमेश ने सरकार के इस फैसले की घोषणा की तो पर्यावरण के क्षेत्र में काम कर रहे कार्यकर्ताओं और भारतीय किसान संघों को अचानक कुछ नहीं सूझा। पहले तो वे भौंचक रहे, क्योंकि इस तरह के फैसले के लिए सही मायने में तैयार ही नहीं थे। लेकिन जब उन्हें लगा कि सचमुच सरकार ने ऐसा कोई फैसला लिया है तो उनकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा। लेकिन लगे हाथों उन्होंने इसे अपनी जीत बताने में भी देर नहीं लगाई।
अर्थशास्त्री जयराम रमेश उदारीकरण के वैसे ही पैरोकार माने जाते रहे हैं, जैसे कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी माने जाते हैं। उदारीकरण की तेजी से बहती बयार को सिर्फ अमेरिकी हवा ही पसंद आती है। अमेरिका की खुशियां, अमेरिकी उपलब्धि और अमेरिकी तैयारी उदारीकरण के पैरोकारों को अपनी खुशी, अपनी उपलब्धि और अपनी तैयारी नजर आने लगती है। यही वजह है कि बीटी बैंगन के उत्पादन को भारत में भी मंजूरी मिलने की उम्मीदें लगाई जा रही थीं। किसानों के संगठन और पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाली संस्थाएं इसे लेकर सशंकित थीं। इसे लेकर रतलाम से लेकर बिहार तक में आंदोलन शुरू हो गए थे। किसानों को आपत्ति थी कि इससे भारतीय प्रजाति के बैंगन का खात्मा हो जाएगा। साथ ही भारतीय स्वास्थ्य और पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचा सकता है। लेकिन जैविक रूप से बदले जा चुके इस बैंगन के पैरोकारों को दावा है कि इससे ना सिर्फ पैदावार बढ़ेगी, बल्कि इसके उत्पादन में कीटनाशकों का ज्यादा इस्तेमाल नहीं करना पड़ेगा। लेकिन इस विवाद का अंत नजर नहीं आ रहा था। इसे लेकर जयराम रमेश ने जन संगठनों, स्वयंसेवी संगठनों और किसानों से चर्चा शुरू की। उन्होंने खुद बताया कि भारत में हरित क्रांति के जनक माने जाने वाले मशहूर कृषि वैज्ञानिक एम एस स्वामीनाथन से तीन दौर की बातचीत की। इसके बाद इसके उत्पादन को मंजूरी देने से फिलहाल इनकार कर दिया।
उदारीकरण में चर्चाओं और बातचीत को नजरंदाज करने की परंपरा सी बन गई है। ऐसे में में जयराम रमेश ने अगर ऐसा कदम उठाया तो निश्चित तौर पर वे प्रशंसा के पात्र हैं। इन चर्चाओं और बहस-मुबाहिसों के दौरान उन्हें खुलेआम खरीखोटी भी सुननी पड़ी है तो दूसरों को खरीखोटी सुनाने में वे भी खुद पीछे नहीं रहे। लेकिन उन्होंने आखिरकार एक क्रांतिकारी फैसला लेने का साहस दिखाया है तो इसके लिए उनकी प्रशंसा करने से गुरेज नहीं होना चाहिए।
यह सच है कि आनुवंशिक रूप से संवर्धित यानी बीटी बैंगन का फिलहाल दुनिया में कहीं भी उत्पादन नहीं हो रहा है। अगर भारत इसकी मंजूरी देता तो वह दुनिया का पहला ऐसा देश बनता। लेकिन यह ऐसा मसला नहीं है, जहां रिकॉर्ड बनाने की जरूरत है। बल्कि देश के स्वास्थ्य के साथ ही पर्यावरण की समस्या से भी जुड़ा ये मामला है। ऐसे में उम्मीद तो यही की जानी चाहिए कि केंद्र सरकार अपने इस फैसले पर बाद में भी कायम रह सकेगी।

इसे देखते हुए जयराम रमेश ने जनसंगठनों, पर्यावरण और खेती के क्षेत्र में काम कर रहे कार्यकर्ताओं के साथ ही देश में हरित क्रांति के जनक माने जाने वाले मशहूर कृषि वैज्ञानिक एम एस स्वामीनाथन से चर्चा की। इस चर्चा के बाद उन्होंने फिलहाल देश में बीटी बैंगन के उत्पादन को मंजूरी देने से मना कर दिया है। जयराम रमेश का कहना है कि चूंकि बीटी बैंगन को लेकर फ़िलहाल पर्याप्त वैज्ञानिक अध्यययन नहीं हुए हैं और इस समय बीटी बैंगन के व्यावसायिक अध्ययन के लिए जल्दबाज़ी की कोई वजह भी नहीं है इसलिए फ़िलहाल इसे अनुमति नहीं दी जा रही है.
मुझ पर दबाव में आने का आरोप लगाया जा सकता है लेकिन यह सोच समझकर, ज़िम्मेदारी के साथ लिया गया पारदर्शी निर्णय है

उन्होंने कहा, "भारत दुनिया का पहला देश होता जो बीटी बैंगन के व्यावसायिक उत्पादन की अनुमति देता इसलिए इस पर बहुत एहतियात की ज़रुरत थी."