Wednesday, June 13, 2012

विकास की प्रतीक्षा में उत्तर बिहार


हाल के वर्षों में बिहार ने विकास के नए प्रतिमान गढ़े हैं. एक वक़्त का पिछड़ा बिहार धीरे धीरे विकासशील राज्यों की दौड़ में अपनी जगह बना चुका है. जाहिर तौर पर इसका श्रेय बिहार के नए नेतृत्व को मिल रहा है. एक वक़्त बाढ़ , बिमारी, अपराध, माफिया और सामुहिक तथा जातीय नरसंहारों की वजह से चर्चित बिहार आज कुशल नेतृत्व, बेहतर कानून व्यवस्था, चमचमाती सड़कों और विकास के अन्य मानकों की वजह से पूरे देश में जाना जा रहा है. बेशक राज्य का माहौल बदला है, नए राजनीतिक नेतृत्व ने लोगों का भरोसा भी जीता है. कानून व्यवस्था के सुधरे हालात ने निवेशकों का भरोसा भी बढाया है. लेकिन असंतुलित क्षेत्रीय विकास की समस्या ज्यों की त्यों है. राज्य में समृद्धि के नए-नए टापू बन रहे हैं, लेकिन उत्तर बिहार आज भी वहीँ खड़ा है. खाई कितनी चौड़ी है इसका अंदाज़ा २००८-०९ के इस आंकड़े से लगाया जा सकता है - इस वर्ष पटना के लोगों की सालाना औसत आमदनी ३७,७३७ रूपये की तुलना में समस्तीपुर के लोगों की औसत आमदनी मात्र १२,६४३ रुपये थी. नतीजन इस क्षेत्र में लोगों में असंतोष बढ़ रहा है. अभी शुरूआती दौड़ में ये बुध्दिजीवियों के बीच ही चर्चा का विषय है लेकिन आमलोगों के बीच भी इसे मुद्दा बनने में समय नहीं लगेगा.

मिसाल है उत्तर बिहार. लगभग छह करोड़ की आबादी वाला, नेपाल और पूर्वोत्तर भारत की सीमा से सटा हुआ बिहार का ये हिस्सा आज भी अपनी बेनूरी पर रो रहा है. उत्तर बिहार के इस हिस्से में जहाँ कभी आम की गाछी में कवि कोकिल विद्यापति के गीत गूंजते थे, आज पलायन का सन्नाटा पसरा है. जहाँ भारती - मंडन मिश्र के तोते भी संस्कृत के श्लोक पढ़ते थे, वहां के छात्र अब पढाई के लिए देश के दूसरे हिस्से में जा रहे हैं. कहने को यहाँ ६-६ विश्वविद्यालय हैं लेकिन शिक्षा के स्तर में सुधार की कोई संभावना नहीं दीख रही है. जो समर्थ हैं वो पढाई के लिए बाहर जा रहे हैं. जो एक बार शिक्षा के लिए या रोजगार की तलाश में बाहर गया, वो लौट कर वापस आयें इसके लिए कोई आधारभूत संरचना नहीं है. बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य और साफ़ सफाई किसी चीज़ की कोई व्यवस्था नही है. ना आरामदेह सडक सेवा है ना रेल सेवा. इलाके ने देश को कई रेल मंत्री दिए हैं , लेकिन कोई भी इस क्षेत्र को बेहतर रेल सेवा से जोड़ नहीं पाया. इस मामले में यह क्षेत्र अभी भी दरिद्र है.

उत्तर बिहार जल संसाधन के क्षेत्र में काफी समृद्ध है और ये संसाधन देश के किसी भी हिस्से में लोगों के लिए विकास और समृद्धि के साधन हैं, लेकिन यहाँ नहीं. उत्तर बिहार में में ये संसाधन लोगों के लिए अभिशाप है. समुचित जल प्रबंधन के अभाव इलाके का एक बड़ा हिस्सा ५-६ महीने बाढ़ में डूबा रहता है. यहाँ के जल संसाधन से राज्य के लिए आवश्यक बिजली की आपूर्ति सुनिश्चित की जा सकती है लेकिन इसके लिए जरुरी उपाय तो राज्य सरकार को ही करने पड़ेंगे. आज यहाँ की हालत ये है कि जहाँ देश में प्रति व्यक्ति बिजली की औसत खपत ५९७ किलो वाट है वहीँ उत्तर बिहार में प्रति व्यक्ति बिजली की औसत खपत मात्र १२० किलो वाट है. सुपौल में १२५ मेगा वाट कि एक पण बिजली परियोजना प्रस्तावित है. अगर कोसी, बागमती जैसी नदियों के जल का इस्तेमाल करने के लिए कुछ स्थानों को चिन्हित करके यहाँ पन बिजली की संभावनाओं का पता लगाया जाये और उस पर अमल किया जाये तो इलाके की तस्वीर बदल जाएगी.

उत्तर बिहार की एक सबसे बड़ी विशेषता है यहाँ की उपजाऊ मिट्टी. बाढ़ और सूखे के लगातार प्रकोप के बावजूद यहाँ के लोगों के जीवन का आधार यहाँ की उपजाऊ मिट्टी ही है. धान, गेहूँ , मक्की, ज्वार, बाजरे जैसी फसलों के अलावा इस इलाके में मिर्च, तम्बाकू, जूट और चाय भी होती है. दिलचस्प बात ये है की यहाँ रासायनिक खादों का उपयोग भी बहुत नहीं होता. लेकिन सरकार ने जो खेती का रोडमैप बनाया है उससे खाद और बीज कंपनियों को ही फायदा मिलेगा. आम किसान बेचारा तो तरक्की की बाट ही जोहता रह जायेगा. अगर सरकार चाहे तो उत्तराखंड की तरह इस पूरे इलाके को जैविक खेती के लिए आरक्षित कर दे तो यहाँ के किसानो की तकदीर बदल जाये. इस इलाके में आम भी बहुत होता है और मुजफ्फरपुर की लीची तो पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है. यहाँ यदि इन फलों के प्रसंस्करण की व्यवस्था हो जाये तो हजारों लोगों को रोज़गार के साधन मिलेंगे. फिर यहाँ का कोई व्यक्ति मुंबई में पिटने ना जाये.

उत्तर बिहार में आपको एक भी शहर नहीं मिलेगा. शहर के नाम पर अनियोजित अर्धशहरी क्षेत्र मिलेंगे. दरभंगा, मुजफ्फरपुर, मधुबनी, मोतिहारी, छपरा, पूर्णियां, कटिहार, सहरसा, सीवान या गोपालगंज कही भी जाएँ आपको लगेगा ही नहीं की आप किसी शहर में हैं. सब के सब अर्ध ग्रामीण क्षेत्र. कोई आधारभूत सुविधा नहीं है. बिजली और सड़क और शिक्षा संस्थानों की छोडिये,एक ढंग का अस्पताल तक नहीं मिलेगा. एक समय का प्रसिद्ध डी.एम.सी.एच अब हेरिटेज की शक्ल ले चुका है. पूरे क्षेत्र में एक भी पी.जी.आई या आयुर्विज्ञान संस्थान नहीं है. लोगों को गंभीर बिमारियों के इलाज के लिए अभी भी बड़े शहरों के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं.

इलाके में एक भी हवाई अड्डा नहीं है. इसलिए मोतिहारी में प्रस्तावित नेशनल यूनिवर्सिटी अब गया में शिफ्ट हो गया है. इलाके के लोग यहाँ आना भी चाहे तो नहीं आ पाते. कही से भी पटना तक दो ढाई घंटे में आ जाते हैं लेकिन उत्तर बिहार तक आते आते घर आने का उनका उत्साह ख़त्म हो जाता है. इलाके में स्पोर्ट्स की कोई सुविधा नहीं है, एक ढंग का स्टेडियम नहीं है. न कोई पार्क, ना बोटनिकल गार्डेन खैर छोडिये एक ढंग का सिनेमा हॉल या थियेटर ही दिखा दीजिये. फिर बाहर से कोई आये भी तो क्यों? मिथिला माँ सीता की जन्म स्थली है. फिर भी हम यहाँ पर्यटन स्थल विकसित नहीं कर सके. इलाके में एक भी ३ स्टार होटल आपको नहीं मिलेगा.

इलाके में दरभंगा और सिवान देश के दो ऐसे जिले हैं जहाँ बैंक में सबसे ज्यादा डिपोजिट होते हैं और देश के २०० जिले जहाँ सबसे अधिक लोन लिए जाते हैं उनमे इलाके के एक भी जिले का नाम नहीं है. स्वाधीनता की लड़ाई में बढ़ - चढ़ कर हिस्सा लेने वाला यह इलाका आज अपने जायज़ अधिकारों से भी वंचित है. अबतक ये इलाका तमाम पिछड़ेपन और प्राकिर्तिक विपदाओं के बावजूद खामोश रहा लेकिन अब सरकारी भेदभाव के विरुद्ध सुगबुगाहट शुरू हो गयी है.