Saturday, June 27, 2009

खेती खेत रहे इससे पहले

27 June, 2009 क्रांति प्रकाश
Font size:

समय आ गया है कि हम इस कथित वैज्ञानिक या आधुनिक खेती की सार्थकता पर फिर से विचार करें और देर होने से पहले भारत में हजारों साल से प्रचलित जैविक (देसी) खेती की ओर लौट चलें। भारत के संदर्भ में जब हम जैविक खेती की बात करते हैं तो इसका मतलब एक ऐसी कृषि व्यवस्था से है जो मोटे तौर पर आत्मनिर्भर रहा है जहां खाद-बीज से लेकर तमाम साधन स्थानीय स्तर पर ही उपलब्ध हो जाता है। चूंकि पारम्परिक खेती में बाजारू चीजों का उपयोग न के बराबर होता है इसलिए इसमें लागत भी कम आती है।
पिछले कुछ वर्षों में तो आए दिन हमें सुनने और पढ़ने को मिलता है कि अमुक इलाके के अमुक किसान ने कर्जा देनेवालों से तंग आकर जान दे दी। लेकिन मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले से जो खबरें आ रहीं हैं वह और भी चिंताजनक है। खबरों के मुताबिक होशंगाबाद के कुर्सीढाना प्रखंड के कुछ किसानों ने पिछले दिनों आत्महत्या कर ली। इन किसानों ने गेहूं उगाने के लिए बैंक से कर्ज लिया था लेकिन उत्पादन काफी कम हुआ और वह लागत भी नहीं निकाल पाये। खराब फसल और गिरवी जमीन से टूटे किसानों ने जान देकर छुटकारा पा लिया। किसानों की आत्महत्या के मामले में यह एक नया मोड़ है, क्योंकि अब तक यही माना जाता रहा है कि कपास जैसी नकदी फसल उगाने वाले किसान ही कर्ज के जाल में फंसते हैं। लेकिन होशंगाबाद की घटना से साफ है कि गेहूं जैसी फसल उगाने वाले किसान भी, कर्ज की चपेट में आकर जान देने को मजबूर हो रहे हैं। जाहिर है, हरित क्रांति के नाम पर बाजारू खाद, बीज के साथ डीजल फूंक कर की जाने वाली खेती अब भारी पड़ने लगी है।
दरअसल वैज्ञानिक या आधुनिक खेती के नाम पर पिछले कुछ दशकों में देश के किसानों को जिस राह पर धकेला गया, उसका आज नहीं तो कल यही अंजाम होना था। आज जिस तरह की खेती की जा रही है, उसके लिए जरूरी बीज, रासायनिक खाद और कीटनाशक समेत सब कुछ बाजार से खरीदना पड़ता है। सरकार कितनी भी सब्सिडी दे इन चीजों की कीमतें कम नहीं होती। फिर सिंचाई के लिए इतना पानी चाहिए कि यह बोरिंग या नलकूप के बिना संभव नहीं है। पानी भले ही जमीन या नहर से मिल जाए, उसे निकालने और खेतों तक पहुंचाने में अच्छा-खासा पैसा लगता है। बिजली के अभाव में पंप सेट चलाने के लिए डीजल का ही सहारा लेना पड़ता है और उसमें भी पैसा ही फूंकना पड़ता है। इतना सब करने के बाद भी फसल अच्छी होगी, इसकी कोई गारंटी नहीं।
कुल मिलाकर इस खेती में लागत इतनी ज्यादा है कि भारत के ज्यादातर छोटे और मंझोले किसानों के लिए इसका खर्च उठाना संभव नहीं है। ऐसे में स्थानीय साहूकार और बैंक ही इनका सहारा बनते हैं और कुछ दिनों बाद मौत का कारण भी। सच तो यह है कि बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए अनाज का उत्पादन बढा़ने की दलील देकर आधुनिक कृषि के पैरोकारों और सरकार ने खेती की जिस पद्वति को आगे बढा़या, वह मूलत: बाजार और साहूकारों के लिए ही फायदेमंद साबित हुआ है। आम किसानों के लिए तो यह घाटे का कारोबार है। इसलिए कल तक खेती के सहारे खुशहाल जिंदगी जीने वाला परिवार आज खेती से भाग रहा है। शायद इसीलिए हरित क्रांति की वकालत करने वाले आज सदाबहार हरित क्रांति की बात कर रहे हैं।
बहरहाल, कचोटने वाली बात यह है कि हरित क्रांति के पैरोकारों में से किसी ने भी किसानों को यह नहीं बताया कि इस खेती में लागत साल दर साल बढ़ती जाएगी और उत्पादन घटता जाएगा। फिर एक समय ऐसा भी आएगा जब उस जमीन में कितना भी खाद-पानी डालो उत्पादन उतना ही रहेगा यानि उपज बढे़गी नहीं। क्योंकि मिट्टी की उर्वरता भी साल दर साल घटती ही जाएगी और कुछ सालों बाद उस जमीन पर घास उगाना भी मुिश्कल हो जाएगा। आज पंजाब और हरियाणा में कुछ ऐसा ही हाल है क्योंकि कीट-पतंगों से फसलों को बचाने के नाम पर की जाने वाले कीट नाशकों के छिड़काव ने घोंघा और केंचुए का नामो-निशान मिटा दिया है जो मिट्टी को नया प्राण देते हैं। इससे होने वाला जल प्रदूषण एक अलग समस्या है।
जैविक खेती को लेकर एक बडी़ गलतफहमी यह है कि इसमें उपज काफी कम होती है, जबकि वास्तविकता कुछ और है। असल में होता यह है कि आधुनिक खेती से बर्बाद हो चुके खेत में जब पारंपरिक तरीके से खेती की जाती है तो शुरूआत में उपज काफी कम होता है, जो स्वाभाविक है। चूंकि रासायनिक खाद से ऊसर हो चुकी जमीन को गोबर की खाद से आबाद होने में थोडा़ समय लगता है इसलिए ऐसी धारणा बन गई है कि जैविक खेती से उत्पादन कम होता है। असल में दो-तीन साल बाद पारंपरिक खेती में भी उतना ही अनाज उपजाया जा सकता है जितना महंगे खाद-बीज और हजारों गैलन पानी झोंक कर उपजाया जा रहा है। पारंपरिक खेती में फसलों का चुनाव बाजार के लिए न होकर खेत और पर्यावरण को ध्यान में रखकर किया जाता है ताकि मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी न हो और नमी बनी रहे। इसलिए जैविक खेती में पानी का इस्तेमाल भी हिसाब से ही होता है। वास्तव में जैविक खेती भारतीय कृषि व्यवस्था का अनिवार्य अंग रहा है।
लेकिन यह रातो रात नहीं होगा और न ही सरकार के सहयोग के बिना होगा। इसके लिए सबसे पहले पशुधन पर ध्यान देना जरूरी है। क्योंकि कभी दूध-दही के मामले में संपन्न माने जाने वाले गांवों को भी अब पाउच वाले दूध का इंतजार रहता है। ऐसा इसलिए हुआ कि रासायनिक खाद की उपयोगिता पर जोर ने पशुपालन को हीन कार्य बना दिया। सरकार को चाहिए कि वह खाद पर दी जाने वाली 80 हजार करोड़ रूपये की सिब्सडी खत्म कर, गाय या भैंस पालने वाले खेतिहर को सीधे आर्थिक सहायता दे। यूरोप और अमेरिका के ज्यादातर देशों में पशु पालने वालों को सरकार प्रतिदिन के हिसाब से दो यूरो या डॉलर की आर्थिक मदद देती है। भारत में भी इसी तरह से आर्थिक सहायता दी जानी चाहिए। अगर यह एक गाय या भैंस पर 100रु प्रतिदिन भी हो तो ज्यादा नहीं है। ऐसा में इसलिए कह रहा हूं कि आज खाद-बीज, कीटनाशक और सिंचाई के लिए बिजली या डीजल पर सिब्सडी के रूप में जितना रूपया झोंका जाता है उससे कम में ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था और कृषि जी उठेगी। इस तरह शहर की ओर पलायन पर भी काफी हद तक लगाम लगायी जा सकेगी।
इसके अलावा देश के सभी जिलों में प्रखंड स्तर पर बीज बैंक खोला जाना चाहिए, जहां किसान बीज सुरक्षित रख सके और अगर उसके पास बीज नहीं है तो वह मनचाही फसल का बीज खरीद सके। इससे किसानों को हाईब्रिड बीजों से छुटकारा मिल जाएगा। पारंपरिक बीज की यह खासियत होती है कि इसे कई सालों तक सुरक्षित रखा जा सकता है। बीज बैंक इसलिए भी जरूरी है कि इससे जैव विविधता बनी रहेगी।
इस तरह अगर सरकार इच्छाशक्ति दिखाए तो भारत की पारंपरिक खेती का कायाकल्प हो सकता है। दिक्कत यह है कि हरित क्रांति के पैरोकार खाद और बीज वाली कंपनीयों के साथ मिलकर जो शोर मचाएंगे उससे निबटने की हिम्मत सरकार दिखा पाएगी यह कहना मुिश्कल है। लेकिन इतना तय है कि भारतीय कृषि तभी पटरी पर लौटेगी जब हम अपनी पारंपरिक यानि जैविक खेती की ओर लौटेंगे।

Tuesday, June 23, 2009


खाद्य सुरक्षा के लिए जरूरी है जैविक खेती

दिल्ली में आयोजित जैविक खेती अभियान का सम्मेलन
मॉनसेंटों जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बीजों और खाद से हो रही खेती के दुष्परिणाम देश के हर इलाके में दिखने लगे हैं। हर साल पंजाब और हरियाणा में भूजल का स्तर लगातार नीचे जा रहा है। इसके जरिए होने वाली खेती की खाद-पानी और कीटनाशकों की भूख लगातार बढ़ती जा रही है।
डंकेल प्रस्तावों के बाद 1993 में इसके विरोध में राजनीतिक दलों ने इसके खिलाफ सवाल उठाए थे। उनकी चिंताओं में ये समस्याएं भी थीं। लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि कम से कम सियासी दलों के लिए ये चिंताएं सिरे से ही गायब होती जा रही हैं। ऐसे में जैविक खेती अभियान के संस्थापक क्रांति प्रकाश ने जब राजधानी दिल्ली में पांच और छह जून को खाद्य सुरक्षा को लेकर सम्मेलन आयोजित किया तो ये उम्मीद कम ही थी कि राजनीति की दुनिया से लोगों की शिरकत हो। लेकिन सीपीआई के वरिष्ठ नेता और अखिल भारतीय किसान महासभा के महासचिव अतुल कुमार अनजान, मुजफ्फरपुर से जनता दल यूनाइटेड के सांसद कैप्टन जयनारायण निषाद और आंध्र प्रदेश कांग्रेस कमेटी के महासचिव के यादवरेड्डी ने जब पसीना और उमस से भरे सम्मेलन हॉल में घंटों तक शिरकत की तो ये उम्मीद जरूर बंध गई कि आने वाले दिनों में देश की खाद्य सुरक्षा की चिंताओं से सियासी दल अलग नहीं रहेंगे। क्रांति प्रकाश ने अपने शुरूआती भाषण में जिक्र किया कि ये सच है कि रासायनिक खादों और कीटनाशकों के सहारे हम देश की जरूरत के लिए अन्न उपजा रहे हैं। लेकिन पर्यावरण और अपने परिस्थितिकी तंत्र को इसके लिए जो कीमत चुकानी पड़ रही है, उसकी भरपाई मुश्किल है। उन्होंने किसानों से आह्वान किया कि देर ना हो जाए, इसके लिए जरूरी है कि वे जल्दी से जल्दी जैविक खेती की ओर लौट आएं।लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या परंपरागत खेती की ओर लौटना इतना आसान है। के यादवरेड्डी, जो खुद भी जैविक खेती अभियान से जुड़े हुए हैं, ने साफ कर दिया कि एकाएक इस खेती की ओर लौटना देश की खाद्य जरूरतों के मुताबिक अन्न उत्पादन में कमी ला सकता है। लिहाजा हमें किसानों के लिए ऐसा उपाय खोजना होगा ताकि हम अपने परिस्थितिकीय संतुलन को बचाए और बनाए रखते हुए देश की करीब सवा अरब जनसंख्या का पेट भरने का भी इंतजाम कर सकें। अतुल अनजान ने तो सम्मेलन में अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी की रिपोर्ट का जिक्र करते हुए सवाल ही उछाल दिया कि देश के लिए ज्यादा जरूरी उन करीब चौरासी लाख लोगों का पेट भरना है या फिर जैविक खेती की ओर लौटना। मनमोहन सरकार द्वारा गठित अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि देश की करीब 83 करोड़ 65 लाख जनसंख्या रोजाना बीस रूपए से भी कम कमाई कर पाती है। हालांकि अतुल अनजान ने जैविक खेती की संभावनाओं और जरूरत को नकारा भी नहीं। लेकिन ये भी सच है कि अगर सरकारें किसानों को जैविक खेती के चलते दो-चार साल तक होने वाले नुकसान की भरपाई और देश को खिलाने के लिए अन्न का इंतजाम कर सकें तो किसान फिर से परंपरागत खेती की ओर लौट सकते हैं। उन्होंने साफ कर दिया कि इस पर ध्यान दिए बिना जैविक खेती की ओर किसानों की वापसी आसान नहीं होगी। लेकिन जयपुर के मोरारका फाउन्डेशन के शुभेंदु दास ने इस बात से इनकार किया कि जैविक खेती में उत्पादन कम होता है। अपने अनुभवों की चर्चा करते हुए शुभेंदु ने कहा कि वास्तव में जैव उत्पाद देखने में छोटे या कम जरुर लगते है लेकिन उनका वजन ज्यादा होता है.ऐसा नहीं कि जैविक यानी परंपरागत तरीके से खेती हो नहीं रही है। लेकिन इससे पैदा हो रही फसलों का बाजार नहीं है। सम्मेलन में राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, बिहार, झारखंड हरियाणा और उत्तरप्रदेश समेत कई राज्यों से आए किसानों का यही सवाल था। किसानों का ये सवाल भी सही है। लेकिन ये भी सच है कि आज महानगरों में जैविक खेती के उत्पाद फैशन और लाइफ स्टाइल से जुड़ते जा रहे हैं। इसमें कभी गांधीजी की सादगी की प्रतीक रही खादी और फैब इंडिया जैसे देसी ब्रांड भी मददगार साबित हो रहे हैं। और प्रचार भी इसी का हो रहा है। पत्रकार उमेश चतुर्वेदी इस परिपाटी पर सवाल उठाने से नहीं हिचके। उनके मुताबिक पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के गांवों में रासायनिक खाद और कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से हो रहे दुष्प्रभावों से निकलने के लिए किसान फिर से परंपरागत खेती की ओर लौट रहे हैं। उन्होंने अपने गांव और आसपास में इसके चलते हो रहे बदलाव का जिक्र करते हुए कहा कि अब सवर्ण लोग अपने खेतों में दलित वर्ग से अपनी भेंड़ें और सूअर रात-रात भर तक ठहराने के लिए गुजारिश करने से गुरेज नहीं कर रहे। उन्होंने कहा कि मीडिया में इन प्रयासों को उचित जगह मिलनी चाहिए।गुजरात की अमित ग्रुप ऑफ़ कंपनीज के अमिताभ के सिंह ने भी इस मसले पर सरकार और नीति निर्धारकों का ध्यान जैविक खेती की ओर खींचने की जरुरत पर जोर दिया। जैविक खेती को लेकर गुजरात में काम कर रहे अमिताभ के मुताबिक जैविक खेती से अच्छी गुणवत्ता वाला पौष्टिक अन्न और फल उपजाया जा सकता है, वह भी खेत और पर्यावरण को नुकसान पहुचाये बिना। तमिलनाडु में चार सौ एकड़ में जैविक खेती करा रहीं डॉक्टर पवित्रा ने रासायनिक खेती से उपजाए गए अन्न, फल और सब्जियो के कुप्रभावों पर चिंता करते हुए इससे होने वाले नुकसान का सिलसिलेवार जिक्र किया। अमरावती विश्वविद्यालय की डॉक्टर अलका कर्वे ने जैविक खेती को लेकर अपने शोध का जिक्र करते हुए किसानों को बताया कि इस परंपरागत खेती की ओर लौटना हमारी मजबूरी नहीं, वक्त की जरूरत है।दो दिनों तक चले इस सम्मलेन में जैविक खेती के बारे में ज्यादा से ज्यादा लोगों को सही जानकारी देने के लिए काम करने का प्रस्ताव पारित किया गया। जैविक खेती अभियान योजना आयोग को अपनी रिपोर्ट और मांग पत्र भी पेश करने जा रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि किसानों की आत्महत्या की राजनीति से जूझ रही राजनीति और देश इस ओर सकारात्मक ढंग से सोचने की जहमत उठाना जरूर शुरू कर सकेगा।

Tuesday, June 16, 2009

पारंपरिक खेती की ओर लौटती दुनिया

प्रकृति की एक प्रक्रिया है-परंपराओं व इतिहास को दुहराने की। अगर आज की जैविक खेती को इस दुहराव की प्रक्रिया का अंग कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। रासायनिक खेती से अलगाव की शुरूआत ठीक उसी तरह पश्चिम से ही हुई है, जिस तरे जैविक व पारंपरिक खेती की बजाय रासायनिक खादों के जरिए खेतों की उर्वरा व कृषि उपज बढ़ाने की शुरूआत पश्चिम से हुई थी। सिर्फ गोबर के खाद के जरिए पिछले 40 वषो± तक भारत में खेती होती रही है। लेकिन हरी व गोबर खाद के मार्फत खेती का प्रभाव दुनियाभर में बढ़ रहा है। जैविक खेती व जैविक खाद्य पदार्थ उत्पादन का दुनियाभर में इतनी तेजी से प्रयार हो रहा है कि इसका एक संगठन भी बन गया है। इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ ऑर्गेनिक एग्रीकल्चर मूवमेंट नामक इस संगठन के आज दुनियाभर में फैली 764 संस्थाएं व स्वयंसेवी संगठन सदस्य हैं। कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया राज्य की खूबसूरत राजधानी विक्टोरिया में पिछले 21 से 28 अगस्त तक इसकी 14वीं `वल्र्ड ऑर्गेनिक कांग्रेस´ भी हुई थी। सच कहें तो भारतीय पद्धति की खेती की ओर दुनिया के बढ़ते झुकाव के बावजूद भारत सरकार के किसी संगठन की इस वल्र्ड कांग्रेस में कोई रूचि नहीं थी। मजे की बात है कि भारत सरकार के अधीन कार्यरत एपिडा व स्पाइसेज बोर्ड ऑफ इंडिया जैसे कुछ संगठन इसके सदस्य भी हैं। रासायनिक खादों के अंधाधुंध प्रयोग से पैदा हुई फसलों की विषाक्तता व शरीर को हानि पहुंचाने की वजह से अस्सी के दशक में दुनिया का ध्यान पारंपरिक तरीकों से खेती की ओर गया। पर्यावरण को बचाने की चिंताए भी इसी दौर की थीं। पारंपरिक खेती के इस नए रूपाकार को `जैविक खेती´ नाम दिया गया। फिर दुनिया भर में खासकर यूरोप व अमेरिका में जैविक खाद्यान्नों के प्रति रूझान बढ़ा। 1990 में जहां विश्व बाजार में जैविक खाद्यान्न का व्यापार एक बिलियन डॉलर था, वहीं आज यह बढ़कर 9।35 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया है। लेकिन मजे की बात है कि हाल तक प्राकृतिक व जैविक खेती के अगुआ रहे भारत की भागीदारी नाममात्र की ही है। ऐसा नहीं है कि यहां ऐसे संगठन सक्रिय नहीं है। वंदना शिवा का नवधान्य, जैविक खेती अभियान आदि संगठन सक्रिय हैं। लेकिन इस पारंपरिक खेती में भारत सरकार की दिलचस्पी न होने व विश्व बाजार में जैविक खाद्य पदाथो± की बढ़ती भागीदारी के बावजूद भारत सरकार का संगठन `एपिडा´ जागने की कोशिश भी नहीं कर रहा है, जबकि कायदे से उसका गठन भी इसलिए ही हुआ है। यहां तक कि कृषि मंत्रालय भी इस ओर चुप्पी साधे है। यहां गौरतलब है कि पश्चिम संस्कृति व अर्थव्यवस्था के प्रतीक अमेरिका व जर्मनी में जैविक खाद्यान्न उत्पादन में रिकार्ड बढ़त हुई है। नई अर्थव्यवस्था को अपना चुके चीन में भी पारंपरिक उत्पादन काफी हो रहा है। जापान, फिलीपींस जैसे देश अब जैविक खाद्य पदाथो± के उत्पादन को परंपरा व स्वास्थ्य रक्षा के अलावा बड़े बाजार के रूप में भी देख रहे हैं। ऐसे में भारत सरकार की उदासीनता पर अफसोस ही किया जा सकता है। जैविक खेती व खाद्यान्न के मामले में आज दुनिया इतनी आगे बढ़ गयी है कि ऐसे खाद्यान्नों के व्यापार हेतु आचार संहिता की मांग भी उठाई जा रही है। विक्टोरिया कांग्रेस में यह मसला जोर-शोर से उठाया गया था। दरअसल, जैविक उत्पाद में शुरूआती दौर में खर्च व मेहनत के कारण लागत बढ़ जाती है। इसलिए ऐसे खाद्यान्न भी महंगे होते हैं। आज इसी कारण से उसके प्रमाणीकरण की आचार संहिता बनाने की भी मांग उठ रही है। जैविक अभियान का ध्यान पर्यावरण की विविधता में लगातार आती जा रही कमी पर भी है। इसीलिए इस बार सामुदायिक बीज सेविंग पर भी जोर दिया गया। जैविक खेती के विचारकों का मानना है कि इसके जरिए जैव-विविधता और खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा मिलेगा। दुनियाभर में जैविक तरीके से खाद्यान्न उत्पादन बढ़ रहा है। लेकिन कई देशों में उन्हें उचित मूल्य तभी मिल सकता है, जब इन उत्पादनों को उचित तरीके से प्रमाणित किया जाए। कई देशों में किसानों को प्रमाण काफी कठिनाई से मिलता है। यह सरलता से मिल सके, इस पर भी चर्चा की गई। यहां यह बताना उचित ही होगा कि अभियान व संगठन के 25 वषो± के इतिहास में यह पहली कांग्रेस थी, जो पूरी तरह से किसानों को समर्पित थी। जैविक खेती का प्रभाव इतना बढ़ रहा है कि आज अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन तथ जर्मनी में जैविक बीयर व वाइन तक बिक रही है। अमेरिका में रासायनिक खादों के अंधाधुंध उपयोग का आज कुप्रभाव दिखने लगा है। अमेरिका में हर दिन 48 एकड़ जमीन इसी कारण से बंजर हो रही है। यही कारण है कि वहां जैविक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है। सच तो यह है कि अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा व जर्मनी में जैविक खेती के लिए सरकारें किसानों को सिब्सडी भी देती हैं। जबकि भारत में तो सिब्सडी ही खत्म करने पर जोर दिया जा रहा है। जैविक खेती के खिलाफ एक नया अभियान भी चल रहा है। फसलों को जेनेटिक परिवर्तन के इस अभियान के खिलाफ जैविक खेती के समर्थकों ने इस बार एक डॉलर की रकम जुटाकर अभियान शुरू किया। फसलों के जीन सुधार का सबसे बड़ा खतरा पारंपरिक जैव विविधता के नष्ट होने का है। लेकिन अब जैविक खेती के समर्थकों ने इसके खिलाफ अभियान शुरू कर दिया है। इसकी अनुगूंज पश्चिमी देशों में तो जरूर सुनी जाएगी लेकिन भारत में यह आवाज सुनी जाएगी या अनुगूंजित होगी? इस पर संदेह ही है। लेकिन इतना तय है कि छोटे-छोटे संगठन अपनी तरह से इस अभियान का अलख जगाए रखेंगे। पारंपरिकता में विश्वास रखने वाले भारतीय समाज को इसे स्वीकार करने में कोई दिक्कत नहीं होगी। ऐसा जैविक अभियान चलाने वाली दुनिया भी मानती है। --
हिन्दुस्तान : 18 सितम्बर 2002

Monday, June 15, 2009

विकास के गर्भ में छिपी भूख

15 June, 2009 क्रांति प्रकाश
Font size:

विकास की इच्छा मनुष्य में संभवत: तभी से है जब से उसे प्रकृति ने सचेत किया है। यह इच्छा बाद में `विकास की भूख´ के तौर पर तब्दील होती गई। आज मानव ने आर्थिक, भौतिक और सामाजिक हर स्तर पर विकास के नए आयाम हासिल किए हैं। तकनीकी क्रांति ने मनुष्य की दुनिया ही बदल दी है। इसके बावजूद विकास की ये भूख खत्म नहीं हुई है। शायद यही वजह है कि आज दुनियाभर में `विकास की भूख´ चर्चा में है।
यह अपनी व्यापकता और तीव्र परिवर्तनीयता के कारण विकास बनाम भूख की बहस में तब्दील हो गया है। बदलती दुनिया के बदलते प्रतिमानों के बीच विचारकों, राजनीतिज्ञों और विकास योजना के रणनीतिकारों के लिए सुलगता सवाल यह भी है, `विकास की कीमत पर भूख´ या `भूख की कीमत पर विकास´ में प्राथमिकता किसे दें? इसी विकास की भूख ने मानव को संवाद एवं संपर्क स्थापित करने की प्रेरणा दी। जहां वर्षों लगते थे वहीं कुछ पल में संवाद हो जाता है। कुछ घंटों में एक द्वीप से दूसरे द्वीप की यात्रा हो जाती है। मानव गुफा से निकलकर ऊंचे भवन में रहने लगा और आसमान में विचरण करने लगा है। औद्योगिक क्रांति और द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत परिवार छोटे-छोटे होने लगे, स्त्री-पुरुष के बीच विश्वास के अभाव में संबंध-विच्छेद होने लगे और बच्चों बल्कि पूरे परिवार के खान-पान पर असर होने लगा। गांव से कस्बों, कस्बों से महानगर तक बढ़ता मानव समाज यह भूलता जा रहा है कि महानगर उसे चमकीली जिंदगी तो दे सकता है परंतु अन्न प्रदान नहीं कर सकता। अन्न तो खेतिहर के श्रम से खेत में ही पैदा हो सकता है। परंतु आज केरल हो या बिहार, गांव युवाहीन हो गया है। जिसके कारण अन्न उत्पादन पर असर पड़ा है। इस वर्ष पंजाब में खेतिहर मजदूरों का अभाव रहा।
इसी सोच का परिणाम है कि पूरी दुनिया में गांव तेजी से उजाड़े गये और पर्यावरण को पूरी तरह से नष्ट किया गया. भारत में ही अब तक 35 हजार गांव विकास और शहरीकरण की भेंट चढ़ चुके हैं. भारत के नक्से से ये गांव पूरी तरह से गायब हो चुके हैं. आज उन गांवों की जगह शहर की गलियां अस्तित्व में आ चुकी हैं. इन गांवों के खत्म होने का मतलब है कि खेती योग्य जमीन भी खत्म हुई. पशु और पर्यावरण खत्म हुआ और शहरीकरण ने विकास के नाम पर खेतों पर अट्टालिकाओं का एक बदनुमा धब्बा चस्पा कर दिया. पुराने लोग जो इस खेत में अनाज पैदा करते थे वे तो गायब ही हुए जो नये लोग आकर इन जमीनों पर बसे अब उन्हें अन्न कौन मुहैया करायेगा?
अमेरिकी कृषि विभाग के आर्थिक शोध के अनुसार देश (अमेरिका) में विकसित और आर्थिक रूप से संपन्न तीन करोड़ अस्सी लाख लोग भुखमरी के कगार पर हैं। एक करोड़ चालीस लाख बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। 21-22 करोड़ की आबादी वाले अमेरिका की यह हालत है। भारत और चीन की हालत तो और भी बदतर है। यही वजह है कि यूरोपीय संघ कृषि पर अपने बजट का चालीस प्रतिशत व्यय करने जा रहा है। यूरोपीय संघ अपने किसानों को परती जमीन रखने पर अनुदान देता है ताकि खेती की उर्वरा शक्ति बनी रहे। स्वतंत्रता के बाद भारत ने विकास का जो मॉडल अपनाया उससे आर्थिक विषमता, पर्यावरण की समस्या, अपराध, महिलाओं पर अत्याचार, मातृभाषा की उपेक्षा में बढ़ोतरी हुई है। विकास की इस अंधी आंधी में केवल गांव ही गायब नहीं हुए हैं. फसलों के प्रकार और बीजों की विविधता भी गायब हुई है. जिस पंजाब में सन् 1961 से पहले 21 प्रकार की फसल होती थी वहां आज सिर्फ 9 प्रकार की ही फसल पैदा की जा रही है। प्रकृति ने अस्सी हजार प्रकार के अनाज, फल, सब्जी मानव व अन्य जीवों के लिए उपलब्ध किए हैं। तीन हजार प्रकार के फलों, सब्जियों और अनाज का हजारों वर्षों से उपयोग हो रहा है, पर यह भी सच है कि अदृश्य शक्तियों के कारण संसार की 75 प्रतिशत जनसंख्या आठ प्रकार के आहार ग्रहण करने को मजबूर हैं। आज से पचास वर्ष पूर्व तक संसार की किसी संस्कृति में सोयाबीन का प्रचलन नहीं था। पर आज जानवरों के लिए चारा और खाद्य तेल के तौर पर सोया का जमकर इस्तेमाल हो रहा है, विशेषकर अनुवांशिक परिवर्धन के विधि निर्मित बीज वाले सोया का प्रचलन है। आज भारत में खाद्य तेल आयात करना पड़ रहा है। एक दशक पूर्व गांव-गांव में सरसों के तेल की पेराई होती थी। अदृश्य शक्ति के कारण लगभग तेल पेराई की दस लाख इकाइयां बंद हो गई और 10 लाख परिवार बेरोजगार हो गए। एक किलो मांस के लिए सात किलो अनाज चाहिए। अब तो वाहन चलाने के लिए पेट्रोल, डीजल, गैस की जगह जैव ईंधन की आवश्यकता पड़ने लगी है। प्रकृति अपने जीवों के लिए आहार की व्यवस्था कर सकती है पर मानव निर्मित यंत्र के लिए नहीं। इसी कारण संसार में भुखमरी बढ़ रही है, लोग बीमार हो रहे हैं, लगभग एक अरब लोग भुखमरी के शिकार हैं तो दूसरी ओर लगभग दो अरब मोटापा के शिकार हैं। इस सत्य को हम झुठला नहीं सकते इसलिए हमें विकास की जगह `उपयुक्त विकास का वातावरण´ की नीति बनानी होगी। भूख मिटाने के लिए विविध प्रकार के अनाज का उपयोग करना होगा। जैव विविधता के संकट को खत्म करना होगा और सबसे बड़ी बात यह कि महानगरों के साथ-साथ गांव को भी ध्यान में रखना होगा। देश की राजधानी दिल्ली में ऊर्जा का संकट नहीं है, पर दिल्ली के पड़ोस में ऊर्जा का संकट है। अगर उर्जा संकट का स्थाई समाधान करना है और सबको उर्जा मुहैया करानी है तो बड़े बांध की जगह छोटे बांध बनाने होंगे। प्रकृति द्वारा उत्पादित ऊर्जा व प्रकृति से छेड़छाड़ किए बिना ऊर्जा का उत्पादन करना होगा तभी हम आने वाले अंधकारमय युग से बच सकते हैं क्योंकि तेल और गैस 22वीं शताब्दी में उपलब्ध नहीं रहेगा। इसलिए हमें तेल आधारित व्यवस्था से मुक्त होना होगा। ऊर्जा अपव्यय करने वाले कायो± से दूर रहना होगा तभी हम भूख से मुक्त हो सकते हैं। हम लोग जिस अमेरिकी व्यवस्था की फोटोकापी बन रहे हैं, वह स्वयं आज असुरक्षा, अभाव, अस्वस्थता, आर्थिक अराजकता और आयात पर निर्भर है। यह व्यवस्था कचरा निर्यात करती है और मानव संसाधन तथा प्राकृतिक आहार का आयात करती है। इस व्यवस्था में रहने वाले बच्चे खिलौनों के लिए चीन और दूसरे एशियाई देशों पर निर्भर हैं। उस व्यवस्था की छायाप्रति बनने से अच्छा है कि हम अपने मूल भारतीय दर्शन को अपना जीवन दर्शन बनाये रखें जो कहता है कि `सांई इतना दीजिए, जामे कुटुंब समाय, मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जा