Monday, January 11, 2016

स्वतंत्रता और स्वैराचारी

स्वतंत्रता और  स्वैराचारी में अंतर है  ये बात आज के समाज को समझना चाहिए सभी लोग  स्वैराचारी हो जायेंगे तो इसके परिणाम दुखद होगा ये बात विशेषकर आज की युवा पीढ़ी पर लागू होती है तथा कथित लिविंग रिलेसन   ये स्वैराचारी है जिसका परिणाम  दुखद होता है जो आज काल देल्ही मुंबई और बड़े नगरो के कामकाजी लोगो में स्वैराचारी का चलन बढ़ा है आज स्वैराचारी लोगो आत्म हत्या की ओर  बढ़  रहे  है और एक समय ऐसा भी आता जब एक साथी दूसरे साथी का संबध में इतंनी कटुता आ जाती है जो जानबर में भी नहीं होता है ये से जानबर भी स्वैराचारी होते है पर जानवर के पास लिखित कानून नहीं होता है अगर इन स्वैराचारी के बच्चे  है तो उस बच्चे पर इसका दुष्परिणाम बड़ा दुखद होता है बच्चो का भी अपना  एक समाज होता है कोई सबंध में वादा खिलाफी नहीं होनी चाहिए 

Saturday, October 25, 2014

 रेल मंत्रालय को छठ के समय ट्रेन की हालत की जानकारी रहती है  फिर भी हालत क्यों अच्छी नहीं  हो पा रही है  इस पर  सरकार को सोचना चाहिए बिहार जाने बाली ट्रेन की हालत ठीक उसी प्रकार की है जैसे बिहार की तीस साल से  बिहार से लोग पलायन कर रहे है  जिस में सभी जात के लोग है मज़दूर और पढ़े लिखे बेरोजगार है ,लालू नितीश और उनके जैसे सोच बाले जबतक बिहार में शासन करेंगे तब तक यही हालत रहेगी पर रेल मंत्रालय को अगले साल मुंबई ,दिल्ली और सूरत से छठ के समय विशेष ट्रेन की अधिक अधिक इंतजाम करनी चाहिए 

Saturday, October 5, 2013

लालू जिस दिन मुख्यमंत्री की शपथ ली

लालू जिस दिन मुख्यमंत्री की शपथ ली उस दोपहर मै ,लालू के बचपन मित्र महेंद्र सिंह और नरेंद्र सिंह (बर्तमान में बिहार के कृषि मंत्री )स्टेट गेस्ट हाउस में लालू ने कहा की ओ महेंद्र भाई लुटे के कामबा राज आ गेल बा हम उस बात को मजाक समझे थे पर लालू सच बोल रहे थे

Wednesday, June 13, 2012

विकास की प्रतीक्षा में उत्तर बिहार


हाल के वर्षों में बिहार ने विकास के नए प्रतिमान गढ़े हैं. एक वक़्त का पिछड़ा बिहार धीरे धीरे विकासशील राज्यों की दौड़ में अपनी जगह बना चुका है. जाहिर तौर पर इसका श्रेय बिहार के नए नेतृत्व को मिल रहा है. एक वक़्त बाढ़ , बिमारी, अपराध, माफिया और सामुहिक तथा जातीय नरसंहारों की वजह से चर्चित बिहार आज कुशल नेतृत्व, बेहतर कानून व्यवस्था, चमचमाती सड़कों और विकास के अन्य मानकों की वजह से पूरे देश में जाना जा रहा है. बेशक राज्य का माहौल बदला है, नए राजनीतिक नेतृत्व ने लोगों का भरोसा भी जीता है. कानून व्यवस्था के सुधरे हालात ने निवेशकों का भरोसा भी बढाया है. लेकिन असंतुलित क्षेत्रीय विकास की समस्या ज्यों की त्यों है. राज्य में समृद्धि के नए-नए टापू बन रहे हैं, लेकिन उत्तर बिहार आज भी वहीँ खड़ा है. खाई कितनी चौड़ी है इसका अंदाज़ा २००८-०९ के इस आंकड़े से लगाया जा सकता है - इस वर्ष पटना के लोगों की सालाना औसत आमदनी ३७,७३७ रूपये की तुलना में समस्तीपुर के लोगों की औसत आमदनी मात्र १२,६४३ रुपये थी. नतीजन इस क्षेत्र में लोगों में असंतोष बढ़ रहा है. अभी शुरूआती दौड़ में ये बुध्दिजीवियों के बीच ही चर्चा का विषय है लेकिन आमलोगों के बीच भी इसे मुद्दा बनने में समय नहीं लगेगा.

मिसाल है उत्तर बिहार. लगभग छह करोड़ की आबादी वाला, नेपाल और पूर्वोत्तर भारत की सीमा से सटा हुआ बिहार का ये हिस्सा आज भी अपनी बेनूरी पर रो रहा है. उत्तर बिहार के इस हिस्से में जहाँ कभी आम की गाछी में कवि कोकिल विद्यापति के गीत गूंजते थे, आज पलायन का सन्नाटा पसरा है. जहाँ भारती - मंडन मिश्र के तोते भी संस्कृत के श्लोक पढ़ते थे, वहां के छात्र अब पढाई के लिए देश के दूसरे हिस्से में जा रहे हैं. कहने को यहाँ ६-६ विश्वविद्यालय हैं लेकिन शिक्षा के स्तर में सुधार की कोई संभावना नहीं दीख रही है. जो समर्थ हैं वो पढाई के लिए बाहर जा रहे हैं. जो एक बार शिक्षा के लिए या रोजगार की तलाश में बाहर गया, वो लौट कर वापस आयें इसके लिए कोई आधारभूत संरचना नहीं है. बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य और साफ़ सफाई किसी चीज़ की कोई व्यवस्था नही है. ना आरामदेह सडक सेवा है ना रेल सेवा. इलाके ने देश को कई रेल मंत्री दिए हैं , लेकिन कोई भी इस क्षेत्र को बेहतर रेल सेवा से जोड़ नहीं पाया. इस मामले में यह क्षेत्र अभी भी दरिद्र है.

उत्तर बिहार जल संसाधन के क्षेत्र में काफी समृद्ध है और ये संसाधन देश के किसी भी हिस्से में लोगों के लिए विकास और समृद्धि के साधन हैं, लेकिन यहाँ नहीं. उत्तर बिहार में में ये संसाधन लोगों के लिए अभिशाप है. समुचित जल प्रबंधन के अभाव इलाके का एक बड़ा हिस्सा ५-६ महीने बाढ़ में डूबा रहता है. यहाँ के जल संसाधन से राज्य के लिए आवश्यक बिजली की आपूर्ति सुनिश्चित की जा सकती है लेकिन इसके लिए जरुरी उपाय तो राज्य सरकार को ही करने पड़ेंगे. आज यहाँ की हालत ये है कि जहाँ देश में प्रति व्यक्ति बिजली की औसत खपत ५९७ किलो वाट है वहीँ उत्तर बिहार में प्रति व्यक्ति बिजली की औसत खपत मात्र १२० किलो वाट है. सुपौल में १२५ मेगा वाट कि एक पण बिजली परियोजना प्रस्तावित है. अगर कोसी, बागमती जैसी नदियों के जल का इस्तेमाल करने के लिए कुछ स्थानों को चिन्हित करके यहाँ पन बिजली की संभावनाओं का पता लगाया जाये और उस पर अमल किया जाये तो इलाके की तस्वीर बदल जाएगी.

उत्तर बिहार की एक सबसे बड़ी विशेषता है यहाँ की उपजाऊ मिट्टी. बाढ़ और सूखे के लगातार प्रकोप के बावजूद यहाँ के लोगों के जीवन का आधार यहाँ की उपजाऊ मिट्टी ही है. धान, गेहूँ , मक्की, ज्वार, बाजरे जैसी फसलों के अलावा इस इलाके में मिर्च, तम्बाकू, जूट और चाय भी होती है. दिलचस्प बात ये है की यहाँ रासायनिक खादों का उपयोग भी बहुत नहीं होता. लेकिन सरकार ने जो खेती का रोडमैप बनाया है उससे खाद और बीज कंपनियों को ही फायदा मिलेगा. आम किसान बेचारा तो तरक्की की बाट ही जोहता रह जायेगा. अगर सरकार चाहे तो उत्तराखंड की तरह इस पूरे इलाके को जैविक खेती के लिए आरक्षित कर दे तो यहाँ के किसानो की तकदीर बदल जाये. इस इलाके में आम भी बहुत होता है और मुजफ्फरपुर की लीची तो पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है. यहाँ यदि इन फलों के प्रसंस्करण की व्यवस्था हो जाये तो हजारों लोगों को रोज़गार के साधन मिलेंगे. फिर यहाँ का कोई व्यक्ति मुंबई में पिटने ना जाये.

उत्तर बिहार में आपको एक भी शहर नहीं मिलेगा. शहर के नाम पर अनियोजित अर्धशहरी क्षेत्र मिलेंगे. दरभंगा, मुजफ्फरपुर, मधुबनी, मोतिहारी, छपरा, पूर्णियां, कटिहार, सहरसा, सीवान या गोपालगंज कही भी जाएँ आपको लगेगा ही नहीं की आप किसी शहर में हैं. सब के सब अर्ध ग्रामीण क्षेत्र. कोई आधारभूत सुविधा नहीं है. बिजली और सड़क और शिक्षा संस्थानों की छोडिये,एक ढंग का अस्पताल तक नहीं मिलेगा. एक समय का प्रसिद्ध डी.एम.सी.एच अब हेरिटेज की शक्ल ले चुका है. पूरे क्षेत्र में एक भी पी.जी.आई या आयुर्विज्ञान संस्थान नहीं है. लोगों को गंभीर बिमारियों के इलाज के लिए अभी भी बड़े शहरों के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं.

इलाके में एक भी हवाई अड्डा नहीं है. इसलिए मोतिहारी में प्रस्तावित नेशनल यूनिवर्सिटी अब गया में शिफ्ट हो गया है. इलाके के लोग यहाँ आना भी चाहे तो नहीं आ पाते. कही से भी पटना तक दो ढाई घंटे में आ जाते हैं लेकिन उत्तर बिहार तक आते आते घर आने का उनका उत्साह ख़त्म हो जाता है. इलाके में स्पोर्ट्स की कोई सुविधा नहीं है, एक ढंग का स्टेडियम नहीं है. न कोई पार्क, ना बोटनिकल गार्डेन खैर छोडिये एक ढंग का सिनेमा हॉल या थियेटर ही दिखा दीजिये. फिर बाहर से कोई आये भी तो क्यों? मिथिला माँ सीता की जन्म स्थली है. फिर भी हम यहाँ पर्यटन स्थल विकसित नहीं कर सके. इलाके में एक भी ३ स्टार होटल आपको नहीं मिलेगा.

इलाके में दरभंगा और सिवान देश के दो ऐसे जिले हैं जहाँ बैंक में सबसे ज्यादा डिपोजिट होते हैं और देश के २०० जिले जहाँ सबसे अधिक लोन लिए जाते हैं उनमे इलाके के एक भी जिले का नाम नहीं है. स्वाधीनता की लड़ाई में बढ़ - चढ़ कर हिस्सा लेने वाला यह इलाका आज अपने जायज़ अधिकारों से भी वंचित है. अबतक ये इलाका तमाम पिछड़ेपन और प्राकिर्तिक विपदाओं के बावजूद खामोश रहा लेकिन अब सरकारी भेदभाव के विरुद्ध सुगबुगाहट शुरू हो गयी है.

Saturday, September 10, 2011

गंगेया, बागमती और बाढ़


प्रसिद्ध रचनाकार रामबृक्ष बेनीपुरी का गांव बेनीपुर इतिहास के पन्नों में खो गया। स्वतंत्रता सेनानियों का गढ़ संयुक्त बिहार विधानसभा के प्रथम अध्यक्ष स्व0 राम दयालु सिंह, भारत के प्रथम राश्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद के मित्र, विधायक स्व0 मथुरा प्रसाद सिंह, स्वतंत्रता सेनानी स्व0 ब्रह्मदेव सिंह, प्रसिद्ध अर्थषास्त्री प्रो0 अजीत प्रसाद सिंह, समाजिक कार्यकर्ता चन्द्रकांत मिश्र, दिग्विजय सिंह और दिलीप सिंह का गांव गंगेया गंगेया अपना अस्तित्व खोने के कगार पर है। कारण - बिहार सरकार-बागमती के बहाव को नियंत्रित करना चाहती है।

सन् 1977 से बागमती पर बांध निर्माण रूका हुआ था, लेकिन नितीष सरकार की अतिसक्रियता से यहां फिर से बांध निर्माण षुरू हो गया है। बड़े बांधों की उपादेयता अभी भी विवादास्पद है। बिहार में कोषी नदी परियोजना अभी तक चल रही है इसके बावजूद सरकार ने बागमती को बांधने का कार्य तेज कर दिया है और सरकार की इस जिद की कीमत चुकाएगा आम आदमी।

बागमती बांधने की तैयारी तो हो गई लेकिन जल भराव क्षेत्र में आने वाले लोगों के समुचित विस्थापन की कोई योजना अभी तक नहीं बनी है। मुजफ्फरपुर और सीतामढ़ी जिले के सैकड़ों गांवों के हजारों लोग बेहाल हैं। सब कुछ किस्मत के हवाले हैं। संपन्न किसान तो कहीं भी ठिकाना ढूंढ लेंगे लेकिन आम आदमी क्या करे। उनकी आवाज की कहीं कोई सुनवाई नहीं है।

बात केवल डूब क्षेत्र की ही नहीं है। इस बांध के बनने से कई और समस्याएं खड़ी हो गई है। छोटे-मोटे, नदी-नाले जो बागमती की षक्ति बढ़ाते थे उन्हें बांध कर बागमती में जाने में रोक दिया गया। परिणाम सामने है - नेपाल से आने वाली ‘मानुशमारा’ नदी को बागमती में मिलाने से रोक दिया गया तो सीतामढ़ी जिले के रून्नी सैदपुर क्षेत्र में तकरीबन दस हजार हेक्टेयर जमीन दलदल में तब्दील हो गई।

अब ये दलदल सैकड़ों तरह की बीमारियों का जनक है। ये जगजाहिर तथ्य है कि बड़ी नदियों को बांधने से कालाजार, मलेरिया, मेनेन्जाईटिस, जापानी बुखार जैसी बीमारियां फैलती हैं। मच्छर-मक्खियों का प्रकोप भी बढ़ेगा। ये तथ्य दामोदर घाटी परियोजना पर नोबल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक सर रोनाल्ड रोस के अध्य्यन से स्पश्ट है।

बिहार वर्शों से बाढ़ की विभिशका से जूझ रहा है। हर साल लाखों लोग इससे प्रभावित होते रहे हैं और अरबों की संपत्ति बर्बाद हो जाती है। कई अध्य्यनों में विषेशज्ञों ने बिहार में बाढ़ की वजह बांध को बताया है। फिर भी ठेकेदार, ब्यूरोक्रट्स और राजनीतिज्ञों के गठजोड़ की वजह से सत्ता हमेषा से बड़े बांधों के पक्ष में खड़ी दिखती है।

फिलवक्त बिहार सरकार के पास अपने कर्मचारियों को देने के लिए पैसे नहीं है फिर बांधों की देख-रेख कैसे होगी? पहले से ही बाढ़ की समस्या से जूझ रही बिहार सरकार इससे निजात पाना चाहती है या इस समस्या को और बढ़ाना चाहती है - ये तो बता पाना मुष्किल है। लेकिन बिहार सरकार के क्रिया-कलाप से अभी तो यही लगता है कि सरकार बाढ़ की समस्या को सुलझाना नहीं चाहती है। आखिर स्वतंत्रता आंदोलन का गढ़ गंगेयावासी क्या करंे?

Monday, August 8, 2011


प्रिय महोदय / महोदया,

अपनी मशहूर किताब स्माल इज ब्यूटीफुल से विचारों की दुनिया में हलचल मचा देने वाले लेखक अर्नेस्ट फ्रेडरिक शुमाकर का यह जन्म शताब्दी वर्ष है। इस मौके पर 16 अगस्त 2011 को दिल्ली में एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है। जिसका विवरण निम्न है –

विषय – वर्तमान संदर्भों में ई एफ शुमाकर के विचारों का महत्व

कार्यक्रम

दिनांक : 16 अगस्त 2011

समय : सुबह 11 बजे

स्थान : राजधानी कॉलेज, ऑडिटोरियम

दिल्ली विश्वविद्यालय

राजा गार्डन, नई दिल्ली

कृपया वक्त पर पधारने का कष्ट करें।

शुभकामनाओं के साथ

जैविक खेती अभियान

फोन 00919213295509 javik@rediffmail.com

Dear Sir/ Madam

We are pleased to inform you that Birth Centenary of Ernst Friedrich Schumacher (Author of Small is Beautiful) - is being celebrated on 16th August, 2011 in Delhi.

Sub: - Significance of E.F. Schumacher’s thoughtSmall is Beautiful- in present Context.

Programme:

Date: 16th August 2011

Time: 11 AM onward

Place: Rajdhani College Auditorium

(University Of Delhi)

Raja Garden, New Delhi

Kindly record it in your engagement diary

With Regards,

Jaivik Kheti Abhiyan(campaign for organic farming)

00919213295509

javik@rediffmail.com

Wednesday, August 3, 2011

Sunday, June 6, 2010

पर्यावरण बचाना होगा

विश्व पर्यावरण दिवस के मौके पर प्रकृति को बचाने की चिंता सेमिनारों और जटिल तकनीकी शब्दावलियों की पृष्ठभूमि में सार्थक परिणति तक नहीं पहुंच रही है। सच तो यह है कि पर्यावरण पर होने वाले बहस के दायरे को अब विकास के कुछ तकनीकी मानदंडों और प्रौद्योगिकी के हेरफेर की बहस से आगे सभ्यतामूलक विमर्श पर ले जाना होगा। सवाल यह उठता है कि हर पर्यावरण दिवस के सालाना जलसे में हमें मर्सिया पढ़ने की जरूरत क्यों होती है? पर्यावरण के क्षय के लिए जिम्मेदार कारक तत्व आखिर कौन से हैं। स्टॉकहोम से लेकर रियो द जेनेरियो और कोपेनहेगेन तक काफी आंसू खर्च करने के बाद मानव जाति पर आसन्न इस संकट के समाधान के बारे में कोई सर्वसम्मति क्यों नहीं बन पा रही है। कल तक केवल कार्बन उत्सर्जन के नाम पर होने वाली बहस की दिशा भी अब काफी भयंकर रुख अख्तियार कर चुकी है। तथाकथित विकास के नाम पर पौधों और जंतुओं की कई प्रजातियां अब तक या तो विलुप्त हो चुकी हैं या खत्म होने के कगार पर पहुंच चुकी हैं। जैव-विविधता पर पैदा हुए इस खतरे ने कई जगह पारिस्थितिकीय असंतुलन की भयानक समस्या पैदा कर दी है। सचाई यह है कि विकास की ओर बढ़ने वाला हमारा हर कदम पर्यावरण के विनाश को निमंत्रण देता है। अब तो विकास नीतियों के पैरोकार यह जुमला दोहराते हुए भी नहीं थकते कि अब पर्यावरण को बचाने के लिए विकास की दिशा तो नहीं मोड़ी जा सकती। कई देशों में तो अब यह बहस भी आम हो गई है कि पर्यावरण का नाश घाटे का सौदा है या फायदे का। शीत या शीतोष्ण कटिबंध से जुड़े देशों में यह तर्क दिया जाने लगा है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमाच्छादित भूमि का बड़ा हिस्सा खाली होगा, जिसका कृषि भूमि के रूप में उपयोग किया जा सकेगा। साथ ही, धूप खिलने के समय में विस्तार होने से एक साल में कई फसलें ली जा सकेंगी। यही वे प्रच्छन्न तर्क हैं, जिनके कारण अब तक समाधान का रास्ता नहीं निकला है। वे आवश्यकताएं ही थीं, जिनका प्रकृति से तालमेल न बिठा पाने के कारण डायनासोर जैसे जीव धरती से खत्म हो गए, और अब ‘जुरासिक पार्क’ जैसी फिल्मों में उनके एनिमेटेड प्रतिरूपों के दर्शन कर हम दांतों तले उंगली दबा रहे हैं। क्या आदमी की महत्वाकांक्षाएं भी इसी दिशा में जा रही हैं? फिर तो हमें अपनी आवश्यकताओं पर अपनी अस्तित्व की रक्षा को तरजीह देनी होगी। बापू ने कभी कहा था कि प्रकृति हर आदमी की जरूरतें तो पूरी कर सकती है, लेकिन किसी एक आदमी का लोभ पूरा नहीं कर सकती। आज हर आदमी प्रकृति के प्रति इस कदर लोभी हो चुका है कि अपने अस्तित्व के लिए जरूरी चीजों को भी खत्म करने को आमादा है । मर्ज पैदा कर औषधि उद्योग के विकास का मार्ग तलाशने वाली व्यापारिक सभ्यता में पर्यावरण के सवाल कभी-कभी तो लोगों को बेमानी से लगते प्रतीत होते हैं। खासकर वाहनों की संख्या पर लगाम लगाने के लिए योजना बनाए बगैर कार्बन उत्सर्जन पर होने वाला विलाप एक विद्रूप भर है। इसलिए पर्यावरण के क्षय और उससे होने वाले मानव जाति के महाक्षय की प्रक्रिया को रोकने के प्रति अगर हम वाकई गंभीर हैं, तो हमें प्रकृति प्रदत्त संसाधनों के धीमे दोहन और उनकी भरपाई के उपायों को विकास के प्रतिमानों में प्राथमिकता के स्तर पर रखना होगा। इसके बगैर बेकार की प्रतिक्रियाओं से न तो पर्यावरण का भला होगा और न मानव का अस्तित्व ही सुरक्षित रह पाएगा।

Sunday, February 21, 2010

बधाई के पात्र हैं जयराम रमेश

उदारीकरण की राह पर तेजी से आगे बढ़ रही केंद्र सरकार से शायद ही किसी को उम्मीद थी कि वह बीटी बैंगन की पैदावार पर रोक लगा सकती है। यही वजह है कि जब केंद्रीय वन एवं पर्यावरण राज्यमंत्री जयराम रमेश ने सरकार के इस फैसले की घोषणा की तो पर्यावरण के क्षेत्र में काम कर रहे कार्यकर्ताओं और भारतीय किसान संघों को अचानक कुछ नहीं सूझा। पहले तो वे भौंचक रहे, क्योंकि इस तरह के फैसले के लिए सही मायने में तैयार ही नहीं थे। लेकिन जब उन्हें लगा कि सचमुच सरकार ने ऐसा कोई फैसला लिया है तो उनकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा। लेकिन लगे हाथों उन्होंने इसे अपनी जीत बताने में भी देर नहीं लगाई।
अर्थशास्त्री जयराम रमेश उदारीकरण के वैसे ही पैरोकार माने जाते रहे हैं, जैसे कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी माने जाते हैं। उदारीकरण की तेजी से बहती बयार को सिर्फ अमेरिकी हवा ही पसंद आती है। अमेरिका की खुशियां, अमेरिकी उपलब्धि और अमेरिकी तैयारी उदारीकरण के पैरोकारों को अपनी खुशी, अपनी उपलब्धि और अपनी तैयारी नजर आने लगती है। यही वजह है कि बीटी बैंगन के उत्पादन को भारत में भी मंजूरी मिलने की उम्मीदें लगाई जा रही थीं। किसानों के संगठन और पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाली संस्थाएं इसे लेकर सशंकित थीं। इसे लेकर रतलाम से लेकर बिहार तक में आंदोलन शुरू हो गए थे। किसानों को आपत्ति थी कि इससे भारतीय प्रजाति के बैंगन का खात्मा हो जाएगा। साथ ही भारतीय स्वास्थ्य और पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचा सकता है। लेकिन जैविक रूप से बदले जा चुके इस बैंगन के पैरोकारों को दावा है कि इससे ना सिर्फ पैदावार बढ़ेगी, बल्कि इसके उत्पादन में कीटनाशकों का ज्यादा इस्तेमाल नहीं करना पड़ेगा। लेकिन इस विवाद का अंत नजर नहीं आ रहा था। इसे लेकर जयराम रमेश ने जन संगठनों, स्वयंसेवी संगठनों और किसानों से चर्चा शुरू की। उन्होंने खुद बताया कि भारत में हरित क्रांति के जनक माने जाने वाले मशहूर कृषि वैज्ञानिक एम एस स्वामीनाथन से तीन दौर की बातचीत की। इसके बाद इसके उत्पादन को मंजूरी देने से फिलहाल इनकार कर दिया।
उदारीकरण में चर्चाओं और बातचीत को नजरंदाज करने की परंपरा सी बन गई है। ऐसे में में जयराम रमेश ने अगर ऐसा कदम उठाया तो निश्चित तौर पर वे प्रशंसा के पात्र हैं। इन चर्चाओं और बहस-मुबाहिसों के दौरान उन्हें खुलेआम खरीखोटी भी सुननी पड़ी है तो दूसरों को खरीखोटी सुनाने में वे भी खुद पीछे नहीं रहे। लेकिन उन्होंने आखिरकार एक क्रांतिकारी फैसला लेने का साहस दिखाया है तो इसके लिए उनकी प्रशंसा करने से गुरेज नहीं होना चाहिए।
यह सच है कि आनुवंशिक रूप से संवर्धित यानी बीटी बैंगन का फिलहाल दुनिया में कहीं भी उत्पादन नहीं हो रहा है। अगर भारत इसकी मंजूरी देता तो वह दुनिया का पहला ऐसा देश बनता। लेकिन यह ऐसा मसला नहीं है, जहां रिकॉर्ड बनाने की जरूरत है। बल्कि देश के स्वास्थ्य के साथ ही पर्यावरण की समस्या से भी जुड़ा ये मामला है। ऐसे में उम्मीद तो यही की जानी चाहिए कि केंद्र सरकार अपने इस फैसले पर बाद में भी कायम रह सकेगी।

इसे देखते हुए जयराम रमेश ने जनसंगठनों, पर्यावरण और खेती के क्षेत्र में काम कर रहे कार्यकर्ताओं के साथ ही देश में हरित क्रांति के जनक माने जाने वाले मशहूर कृषि वैज्ञानिक एम एस स्वामीनाथन से चर्चा की। इस चर्चा के बाद उन्होंने फिलहाल देश में बीटी बैंगन के उत्पादन को मंजूरी देने से मना कर दिया है। जयराम रमेश का कहना है कि चूंकि बीटी बैंगन को लेकर फ़िलहाल पर्याप्त वैज्ञानिक अध्यययन नहीं हुए हैं और इस समय बीटी बैंगन के व्यावसायिक अध्ययन के लिए जल्दबाज़ी की कोई वजह भी नहीं है इसलिए फ़िलहाल इसे अनुमति नहीं दी जा रही है.
मुझ पर दबाव में आने का आरोप लगाया जा सकता है लेकिन यह सोच समझकर, ज़िम्मेदारी के साथ लिया गया पारदर्शी निर्णय है

उन्होंने कहा, "भारत दुनिया का पहला देश होता जो बीटी बैंगन के व्यावसायिक उत्पादन की अनुमति देता इसलिए इस पर बहुत एहतियात की ज़रुरत थी."

Wednesday, September 23, 2009