Wednesday, September 23, 2009


कोपेन हेगन में होगी असली परीक्षा

सन् 1972 में स्टॉकहोम में संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वाधान में मानव वातावरण पर एक सम्मेलन हुआ था। सबसे पहले यहीं बदलते पर्यावरण पर विचार-विमर्श हुआ, फिर 1992 में रियो द जनेरो में अर्थ समिट हुआ जहां पर्यावरण को लेकर चिंता जाहिर की गई और यह माना गया कि कार्बन उत्सर्जन में कमी नहीं की गयी तो इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। इस दौरान बैठकों का दौर चलता रहा और अब आने वाले दिसंबर में कोपेन हेगन में जलवायु परिवर्तन को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ का सम्मेलन होने जा रहा है।
उम्मीद की जाती है कि उस सम्मेलन में कार्बन उत्सर्जन को लेकर कोई न कोई समझौता हो ही जाएगा और शायद भारत को भी उस समझौते पर दस्तखत करना पड़े। सवाल है कि क्या भारत कार्बन उत्सर्जन में उतनी कमी को तैयार है जितना विकसित देश चहते हैंर्षोर्षो और अगर नहीं तो फिर विकल्प क्या हैर्षोर्षो क्या इसके लिए भारत ने कोई तैयारी भी की हैर्षोर्षो जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में काम करने वाली संस्थाओं और समाचार माध्यमों के जरिए जो सूचनाएं मिल रही हैं उससे ऐसा नहीं लगता कि भारत के पास कोई वैकल्पिक योजना है। आंकड़ों के मुताबिक भारत प्रति व्यक्ति सिर्फ एक टन कार्बन का उत्सर्जन करता है जबकि अमेरिका 24 और कनाडा 23 टन। ईरान जैसा देश भी प्रति व्यक्ति सात टन कार्बन उत्सर्जन करता है। जाहिर है विकास और कार्बन जनित ईंधन का सीधा रिश्ता है। इसके बावजूद विकसित देश चाहते हैं कि विकासशील देश कार्बन उत्सर्जन में कटौती करें। इसका मतलब यह हुआ कि भारत को कार्बन उत्सर्जन में कमी के समझौते पर हस्ताक्षर करना ही पड़ेगा और वह भी विकसित देशों के कहने के मुताबिक। कहने की आवश्यकता नहीं कि इसका भारत के विकास पर नकारात्मक असर पड़ेगा क्योंकि कार्बन उत्सर्जन में कमी का सीधा मतलब है ऊर्जा की खपत में कटौती। सवाल है, भारत के सामने विकल्प क्या हैर्षोर्षो एक उपाय तो यह है कि भारत तत्काल इस समझौते पर हस्ताक्षर नहीं करे। सरकार यह तर्क दे सकती है कि इसके लिए जरूरी तैयारी करने के लिए भारत को वक्त चाहिए। ऐसा किया जा सकता है और संभव है कि चीन भी यही करे। विश्व व्यापार संगठन के मामले में चीन ऐसा कर चुका है। हम यह देख चुके हैं कि चीन ने विश्व व्यापार संगठन पर तभी हस्ताक्षर किए जब उसने इसके कुप्रभावों से बचने के उपाय कर लिए। गौरतलब है कि दिसंबर 2001 मे आकर चीन डब्ल्यूटीओ का सदस्य बना। लेकिन भारत ऐसी हिम्मत नहीं दिखा पाया और हमारे लोग विश्व व्यापार संगठन के बारे में जाने-बूझे बिना उस पर दस्तखत कर आए जिसका परिणाम हमें आज तक भोगना पड़ रहा है। इसलिए जलवायु परिवर्तन के समझौते पर दस्तखत ना करने की हिम्मत भारत दिखा पाएगा कहना मुिश्कल है। दूसरा उपाय यह है कि भारत कार्बन उत्सर्जन कम करने पर सहमत हो जाए और समझौते पर हस्ताक्षर कर दे। कहने की बात नहीं कि कार्बन उत्सर्जन घटाना एक चुनौती होगी। ऐसे में सरकार के पास क्या विकल्प होंगे और किन तरीकों से कार्बन उत्सर्जन घटाया जाएगार्षोर्षो इस मामले में सरकार के विशेषज्ञ क्या कहते हैं यह साफ नहीं है लेकिन कठिन पर सबसे कारगर विकल्प यह है कि शहरीकरण की आंधी पर लगाम लगायी जाय। जब हम शहरीकरण पर लगाम लगाने की बात करते हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि शहरों को दी जाने वाली सुविधा में कटौती कर उन्हें तबाह कर दिया जाय। बदले हालात में ऐसी व्यवस्था की जाए ताकि शहरों के बेतरतीब विकास और गांव से शहरों की ओर पलायन पर रोक लगे। इसके लिए होना यह चाहिए कि छोटे-बड़े कस्बों और ग्रामीण इलाकों में नागरिक सुविधाएं उपलब्ध कराने पर ध्यान दिया जाए। पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने इसे `पूरा´ यानी प्रोवाईड अर्बन एमिनिटीज इन रूरल एरियाज कहा था। नागरिक सुविधाओं में भी बिजली, पानी और यातायात के साधन यानी सड़कों और आधारभूत सुविधाओं के विकास पर विशेष जोर देने की जरूरत है। कुल मिलाकर ग्रामीण इलाकों में ऐसी अर्थव्यवस्था विकसित करने की जरूरत है जो पूरी तरह से आत्म-निर्भर हो खासकर मूलभूत आवश्यकताओं के मामले में। यानी वहां का उत्पाद आसपास के इलाक में ही खप जाए। स्थानीय लोगों को रोजी-रोटी के लिए बड़े शहरों का रूख ना करना पड़े। सीधे-सीधे कहें तो हमें ऐसी अर्थव्यवस्था विकसित करने की कोशिश करनी चाहिए जिसमें परिवहन पर फूंके जाने वाले ईंधन को बचाने पर जोर हो। साथ ही हमें भोगवाद की प्रवृत्ति पर भी लगाम लगानी होगी। इसके पीछे तर्क यह है कि दुनिया भर में सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन माल ढोने वाले वाहनों और एसयूीव यानी स्पोर्ट युटिलिटी वाहनों के कारण होता है। कमोबेश भारत के संदर्भ में भी यह उतना ही सही है क्यांकि यहां अमेरिका या किसी और विकसित देश के मुकाबले एसयूीव और एसी, फि्रज भले ही कम हो पर जरूरी सामान और लोगों के परिवहन पर काफी ईंधन खर्च होता है। शहरों मंें बढ़ती भीड़ के कारण बरबाद होने वाले ईंधन का भी दुनिया का तापमान बढ़ाने में खासा योगदान है। इसलिए यूरोप में `हंड्रेड मायल डायट´ का नारा दिया जा रहा है और कई देशों मेें उस पर अमल भी हो रहा है। `हंड्रेड मायल डायट´ का मतलब है कि आसपास के सौ मील के दायरे में उत्पादित सामान या खाद्यान्न का ही उपयोग किया जाए। यानी अनाज और अन्य खाद्य वस्तुओं के बाहर या कहें कि लंबी दूरी से आयात से परहेज किया जा रहा है। भारत में भी कुछ ऐसा ही करने की जरूरत है। सरकार को यह नियम बना देना चाहिए कि एक राज्य से दूसरे राज्य में अनाज और बाकी जरूरी खाद्यान्न तभी लाया ले जाया जायए जब वहां उस अनाज की कमी हो। इसके लिए स्थानीय स्तर पर अनाजों की खरीद और भंडारण व्यवस्था करनी होगी। इसके अलावा एसी, फि्रज और एसयूवी पर मोटा टैक्स लगाने की जरूरत है। पृथ्वी के गरमाते मिजाज को लेकर दुनिया गंभीर है और जापान ने तो कार्बन उत्सर्जन में कटौती की शुरूआत भी कर दी है। हमारे पास ज्यादा समय नहीं है इसलिए कोपेन हेगन में होने वाले सम्मेलन के बारे में तत्काल सोचने की जरूरत है। बेहतर तो यही होगा कि देश में पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाली संस्थाओं और लोगों का एक सम्मेलन बुलाया जाए। इस बारे में सरकार को ही पहल करनी हागी। इस सम्मेलन के जरिए सरकार को कुछ जरूरी सुझाव मिल सकते हैं। इस तरह व्यापक विचार-विमर्श के बाद ही कार्बन उत्सर्जन कम करने के मामले में आगे बढ़ा जाए तो बेहतर होगा। पर क्या देश के बाबू लोग जागेंगे?