Wednesday, September 23, 2009


कोपेन हेगन में होगी असली परीक्षा

सन् 1972 में स्टॉकहोम में संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वाधान में मानव वातावरण पर एक सम्मेलन हुआ था। सबसे पहले यहीं बदलते पर्यावरण पर विचार-विमर्श हुआ, फिर 1992 में रियो द जनेरो में अर्थ समिट हुआ जहां पर्यावरण को लेकर चिंता जाहिर की गई और यह माना गया कि कार्बन उत्सर्जन में कमी नहीं की गयी तो इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। इस दौरान बैठकों का दौर चलता रहा और अब आने वाले दिसंबर में कोपेन हेगन में जलवायु परिवर्तन को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ का सम्मेलन होने जा रहा है।
उम्मीद की जाती है कि उस सम्मेलन में कार्बन उत्सर्जन को लेकर कोई न कोई समझौता हो ही जाएगा और शायद भारत को भी उस समझौते पर दस्तखत करना पड़े। सवाल है कि क्या भारत कार्बन उत्सर्जन में उतनी कमी को तैयार है जितना विकसित देश चहते हैंर्षोर्षो और अगर नहीं तो फिर विकल्प क्या हैर्षोर्षो क्या इसके लिए भारत ने कोई तैयारी भी की हैर्षोर्षो जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में काम करने वाली संस्थाओं और समाचार माध्यमों के जरिए जो सूचनाएं मिल रही हैं उससे ऐसा नहीं लगता कि भारत के पास कोई वैकल्पिक योजना है। आंकड़ों के मुताबिक भारत प्रति व्यक्ति सिर्फ एक टन कार्बन का उत्सर्जन करता है जबकि अमेरिका 24 और कनाडा 23 टन। ईरान जैसा देश भी प्रति व्यक्ति सात टन कार्बन उत्सर्जन करता है। जाहिर है विकास और कार्बन जनित ईंधन का सीधा रिश्ता है। इसके बावजूद विकसित देश चाहते हैं कि विकासशील देश कार्बन उत्सर्जन में कटौती करें। इसका मतलब यह हुआ कि भारत को कार्बन उत्सर्जन में कमी के समझौते पर हस्ताक्षर करना ही पड़ेगा और वह भी विकसित देशों के कहने के मुताबिक। कहने की आवश्यकता नहीं कि इसका भारत के विकास पर नकारात्मक असर पड़ेगा क्योंकि कार्बन उत्सर्जन में कमी का सीधा मतलब है ऊर्जा की खपत में कटौती। सवाल है, भारत के सामने विकल्प क्या हैर्षोर्षो एक उपाय तो यह है कि भारत तत्काल इस समझौते पर हस्ताक्षर नहीं करे। सरकार यह तर्क दे सकती है कि इसके लिए जरूरी तैयारी करने के लिए भारत को वक्त चाहिए। ऐसा किया जा सकता है और संभव है कि चीन भी यही करे। विश्व व्यापार संगठन के मामले में चीन ऐसा कर चुका है। हम यह देख चुके हैं कि चीन ने विश्व व्यापार संगठन पर तभी हस्ताक्षर किए जब उसने इसके कुप्रभावों से बचने के उपाय कर लिए। गौरतलब है कि दिसंबर 2001 मे आकर चीन डब्ल्यूटीओ का सदस्य बना। लेकिन भारत ऐसी हिम्मत नहीं दिखा पाया और हमारे लोग विश्व व्यापार संगठन के बारे में जाने-बूझे बिना उस पर दस्तखत कर आए जिसका परिणाम हमें आज तक भोगना पड़ रहा है। इसलिए जलवायु परिवर्तन के समझौते पर दस्तखत ना करने की हिम्मत भारत दिखा पाएगा कहना मुिश्कल है। दूसरा उपाय यह है कि भारत कार्बन उत्सर्जन कम करने पर सहमत हो जाए और समझौते पर हस्ताक्षर कर दे। कहने की बात नहीं कि कार्बन उत्सर्जन घटाना एक चुनौती होगी। ऐसे में सरकार के पास क्या विकल्प होंगे और किन तरीकों से कार्बन उत्सर्जन घटाया जाएगार्षोर्षो इस मामले में सरकार के विशेषज्ञ क्या कहते हैं यह साफ नहीं है लेकिन कठिन पर सबसे कारगर विकल्प यह है कि शहरीकरण की आंधी पर लगाम लगायी जाय। जब हम शहरीकरण पर लगाम लगाने की बात करते हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि शहरों को दी जाने वाली सुविधा में कटौती कर उन्हें तबाह कर दिया जाय। बदले हालात में ऐसी व्यवस्था की जाए ताकि शहरों के बेतरतीब विकास और गांव से शहरों की ओर पलायन पर रोक लगे। इसके लिए होना यह चाहिए कि छोटे-बड़े कस्बों और ग्रामीण इलाकों में नागरिक सुविधाएं उपलब्ध कराने पर ध्यान दिया जाए। पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने इसे `पूरा´ यानी प्रोवाईड अर्बन एमिनिटीज इन रूरल एरियाज कहा था। नागरिक सुविधाओं में भी बिजली, पानी और यातायात के साधन यानी सड़कों और आधारभूत सुविधाओं के विकास पर विशेष जोर देने की जरूरत है। कुल मिलाकर ग्रामीण इलाकों में ऐसी अर्थव्यवस्था विकसित करने की जरूरत है जो पूरी तरह से आत्म-निर्भर हो खासकर मूलभूत आवश्यकताओं के मामले में। यानी वहां का उत्पाद आसपास के इलाक में ही खप जाए। स्थानीय लोगों को रोजी-रोटी के लिए बड़े शहरों का रूख ना करना पड़े। सीधे-सीधे कहें तो हमें ऐसी अर्थव्यवस्था विकसित करने की कोशिश करनी चाहिए जिसमें परिवहन पर फूंके जाने वाले ईंधन को बचाने पर जोर हो। साथ ही हमें भोगवाद की प्रवृत्ति पर भी लगाम लगानी होगी। इसके पीछे तर्क यह है कि दुनिया भर में सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन माल ढोने वाले वाहनों और एसयूीव यानी स्पोर्ट युटिलिटी वाहनों के कारण होता है। कमोबेश भारत के संदर्भ में भी यह उतना ही सही है क्यांकि यहां अमेरिका या किसी और विकसित देश के मुकाबले एसयूीव और एसी, फि्रज भले ही कम हो पर जरूरी सामान और लोगों के परिवहन पर काफी ईंधन खर्च होता है। शहरों मंें बढ़ती भीड़ के कारण बरबाद होने वाले ईंधन का भी दुनिया का तापमान बढ़ाने में खासा योगदान है। इसलिए यूरोप में `हंड्रेड मायल डायट´ का नारा दिया जा रहा है और कई देशों मेें उस पर अमल भी हो रहा है। `हंड्रेड मायल डायट´ का मतलब है कि आसपास के सौ मील के दायरे में उत्पादित सामान या खाद्यान्न का ही उपयोग किया जाए। यानी अनाज और अन्य खाद्य वस्तुओं के बाहर या कहें कि लंबी दूरी से आयात से परहेज किया जा रहा है। भारत में भी कुछ ऐसा ही करने की जरूरत है। सरकार को यह नियम बना देना चाहिए कि एक राज्य से दूसरे राज्य में अनाज और बाकी जरूरी खाद्यान्न तभी लाया ले जाया जायए जब वहां उस अनाज की कमी हो। इसके लिए स्थानीय स्तर पर अनाजों की खरीद और भंडारण व्यवस्था करनी होगी। इसके अलावा एसी, फि्रज और एसयूवी पर मोटा टैक्स लगाने की जरूरत है। पृथ्वी के गरमाते मिजाज को लेकर दुनिया गंभीर है और जापान ने तो कार्बन उत्सर्जन में कटौती की शुरूआत भी कर दी है। हमारे पास ज्यादा समय नहीं है इसलिए कोपेन हेगन में होने वाले सम्मेलन के बारे में तत्काल सोचने की जरूरत है। बेहतर तो यही होगा कि देश में पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाली संस्थाओं और लोगों का एक सम्मेलन बुलाया जाए। इस बारे में सरकार को ही पहल करनी हागी। इस सम्मेलन के जरिए सरकार को कुछ जरूरी सुझाव मिल सकते हैं। इस तरह व्यापक विचार-विमर्श के बाद ही कार्बन उत्सर्जन कम करने के मामले में आगे बढ़ा जाए तो बेहतर होगा। पर क्या देश के बाबू लोग जागेंगे?

Saturday, June 27, 2009

खेती खेत रहे इससे पहले

27 June, 2009 क्रांति प्रकाश
Font size:

समय आ गया है कि हम इस कथित वैज्ञानिक या आधुनिक खेती की सार्थकता पर फिर से विचार करें और देर होने से पहले भारत में हजारों साल से प्रचलित जैविक (देसी) खेती की ओर लौट चलें। भारत के संदर्भ में जब हम जैविक खेती की बात करते हैं तो इसका मतलब एक ऐसी कृषि व्यवस्था से है जो मोटे तौर पर आत्मनिर्भर रहा है जहां खाद-बीज से लेकर तमाम साधन स्थानीय स्तर पर ही उपलब्ध हो जाता है। चूंकि पारम्परिक खेती में बाजारू चीजों का उपयोग न के बराबर होता है इसलिए इसमें लागत भी कम आती है।
पिछले कुछ वर्षों में तो आए दिन हमें सुनने और पढ़ने को मिलता है कि अमुक इलाके के अमुक किसान ने कर्जा देनेवालों से तंग आकर जान दे दी। लेकिन मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले से जो खबरें आ रहीं हैं वह और भी चिंताजनक है। खबरों के मुताबिक होशंगाबाद के कुर्सीढाना प्रखंड के कुछ किसानों ने पिछले दिनों आत्महत्या कर ली। इन किसानों ने गेहूं उगाने के लिए बैंक से कर्ज लिया था लेकिन उत्पादन काफी कम हुआ और वह लागत भी नहीं निकाल पाये। खराब फसल और गिरवी जमीन से टूटे किसानों ने जान देकर छुटकारा पा लिया। किसानों की आत्महत्या के मामले में यह एक नया मोड़ है, क्योंकि अब तक यही माना जाता रहा है कि कपास जैसी नकदी फसल उगाने वाले किसान ही कर्ज के जाल में फंसते हैं। लेकिन होशंगाबाद की घटना से साफ है कि गेहूं जैसी फसल उगाने वाले किसान भी, कर्ज की चपेट में आकर जान देने को मजबूर हो रहे हैं। जाहिर है, हरित क्रांति के नाम पर बाजारू खाद, बीज के साथ डीजल फूंक कर की जाने वाली खेती अब भारी पड़ने लगी है।
दरअसल वैज्ञानिक या आधुनिक खेती के नाम पर पिछले कुछ दशकों में देश के किसानों को जिस राह पर धकेला गया, उसका आज नहीं तो कल यही अंजाम होना था। आज जिस तरह की खेती की जा रही है, उसके लिए जरूरी बीज, रासायनिक खाद और कीटनाशक समेत सब कुछ बाजार से खरीदना पड़ता है। सरकार कितनी भी सब्सिडी दे इन चीजों की कीमतें कम नहीं होती। फिर सिंचाई के लिए इतना पानी चाहिए कि यह बोरिंग या नलकूप के बिना संभव नहीं है। पानी भले ही जमीन या नहर से मिल जाए, उसे निकालने और खेतों तक पहुंचाने में अच्छा-खासा पैसा लगता है। बिजली के अभाव में पंप सेट चलाने के लिए डीजल का ही सहारा लेना पड़ता है और उसमें भी पैसा ही फूंकना पड़ता है। इतना सब करने के बाद भी फसल अच्छी होगी, इसकी कोई गारंटी नहीं।
कुल मिलाकर इस खेती में लागत इतनी ज्यादा है कि भारत के ज्यादातर छोटे और मंझोले किसानों के लिए इसका खर्च उठाना संभव नहीं है। ऐसे में स्थानीय साहूकार और बैंक ही इनका सहारा बनते हैं और कुछ दिनों बाद मौत का कारण भी। सच तो यह है कि बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए अनाज का उत्पादन बढा़ने की दलील देकर आधुनिक कृषि के पैरोकारों और सरकार ने खेती की जिस पद्वति को आगे बढा़या, वह मूलत: बाजार और साहूकारों के लिए ही फायदेमंद साबित हुआ है। आम किसानों के लिए तो यह घाटे का कारोबार है। इसलिए कल तक खेती के सहारे खुशहाल जिंदगी जीने वाला परिवार आज खेती से भाग रहा है। शायद इसीलिए हरित क्रांति की वकालत करने वाले आज सदाबहार हरित क्रांति की बात कर रहे हैं।
बहरहाल, कचोटने वाली बात यह है कि हरित क्रांति के पैरोकारों में से किसी ने भी किसानों को यह नहीं बताया कि इस खेती में लागत साल दर साल बढ़ती जाएगी और उत्पादन घटता जाएगा। फिर एक समय ऐसा भी आएगा जब उस जमीन में कितना भी खाद-पानी डालो उत्पादन उतना ही रहेगा यानि उपज बढे़गी नहीं। क्योंकि मिट्टी की उर्वरता भी साल दर साल घटती ही जाएगी और कुछ सालों बाद उस जमीन पर घास उगाना भी मुिश्कल हो जाएगा। आज पंजाब और हरियाणा में कुछ ऐसा ही हाल है क्योंकि कीट-पतंगों से फसलों को बचाने के नाम पर की जाने वाले कीट नाशकों के छिड़काव ने घोंघा और केंचुए का नामो-निशान मिटा दिया है जो मिट्टी को नया प्राण देते हैं। इससे होने वाला जल प्रदूषण एक अलग समस्या है।
जैविक खेती को लेकर एक बडी़ गलतफहमी यह है कि इसमें उपज काफी कम होती है, जबकि वास्तविकता कुछ और है। असल में होता यह है कि आधुनिक खेती से बर्बाद हो चुके खेत में जब पारंपरिक तरीके से खेती की जाती है तो शुरूआत में उपज काफी कम होता है, जो स्वाभाविक है। चूंकि रासायनिक खाद से ऊसर हो चुकी जमीन को गोबर की खाद से आबाद होने में थोडा़ समय लगता है इसलिए ऐसी धारणा बन गई है कि जैविक खेती से उत्पादन कम होता है। असल में दो-तीन साल बाद पारंपरिक खेती में भी उतना ही अनाज उपजाया जा सकता है जितना महंगे खाद-बीज और हजारों गैलन पानी झोंक कर उपजाया जा रहा है। पारंपरिक खेती में फसलों का चुनाव बाजार के लिए न होकर खेत और पर्यावरण को ध्यान में रखकर किया जाता है ताकि मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी न हो और नमी बनी रहे। इसलिए जैविक खेती में पानी का इस्तेमाल भी हिसाब से ही होता है। वास्तव में जैविक खेती भारतीय कृषि व्यवस्था का अनिवार्य अंग रहा है।
लेकिन यह रातो रात नहीं होगा और न ही सरकार के सहयोग के बिना होगा। इसके लिए सबसे पहले पशुधन पर ध्यान देना जरूरी है। क्योंकि कभी दूध-दही के मामले में संपन्न माने जाने वाले गांवों को भी अब पाउच वाले दूध का इंतजार रहता है। ऐसा इसलिए हुआ कि रासायनिक खाद की उपयोगिता पर जोर ने पशुपालन को हीन कार्य बना दिया। सरकार को चाहिए कि वह खाद पर दी जाने वाली 80 हजार करोड़ रूपये की सिब्सडी खत्म कर, गाय या भैंस पालने वाले खेतिहर को सीधे आर्थिक सहायता दे। यूरोप और अमेरिका के ज्यादातर देशों में पशु पालने वालों को सरकार प्रतिदिन के हिसाब से दो यूरो या डॉलर की आर्थिक मदद देती है। भारत में भी इसी तरह से आर्थिक सहायता दी जानी चाहिए। अगर यह एक गाय या भैंस पर 100रु प्रतिदिन भी हो तो ज्यादा नहीं है। ऐसा में इसलिए कह रहा हूं कि आज खाद-बीज, कीटनाशक और सिंचाई के लिए बिजली या डीजल पर सिब्सडी के रूप में जितना रूपया झोंका जाता है उससे कम में ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था और कृषि जी उठेगी। इस तरह शहर की ओर पलायन पर भी काफी हद तक लगाम लगायी जा सकेगी।
इसके अलावा देश के सभी जिलों में प्रखंड स्तर पर बीज बैंक खोला जाना चाहिए, जहां किसान बीज सुरक्षित रख सके और अगर उसके पास बीज नहीं है तो वह मनचाही फसल का बीज खरीद सके। इससे किसानों को हाईब्रिड बीजों से छुटकारा मिल जाएगा। पारंपरिक बीज की यह खासियत होती है कि इसे कई सालों तक सुरक्षित रखा जा सकता है। बीज बैंक इसलिए भी जरूरी है कि इससे जैव विविधता बनी रहेगी।
इस तरह अगर सरकार इच्छाशक्ति दिखाए तो भारत की पारंपरिक खेती का कायाकल्प हो सकता है। दिक्कत यह है कि हरित क्रांति के पैरोकार खाद और बीज वाली कंपनीयों के साथ मिलकर जो शोर मचाएंगे उससे निबटने की हिम्मत सरकार दिखा पाएगी यह कहना मुिश्कल है। लेकिन इतना तय है कि भारतीय कृषि तभी पटरी पर लौटेगी जब हम अपनी पारंपरिक यानि जैविक खेती की ओर लौटेंगे।

Tuesday, June 23, 2009


खाद्य सुरक्षा के लिए जरूरी है जैविक खेती

दिल्ली में आयोजित जैविक खेती अभियान का सम्मेलन
मॉनसेंटों जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बीजों और खाद से हो रही खेती के दुष्परिणाम देश के हर इलाके में दिखने लगे हैं। हर साल पंजाब और हरियाणा में भूजल का स्तर लगातार नीचे जा रहा है। इसके जरिए होने वाली खेती की खाद-पानी और कीटनाशकों की भूख लगातार बढ़ती जा रही है।
डंकेल प्रस्तावों के बाद 1993 में इसके विरोध में राजनीतिक दलों ने इसके खिलाफ सवाल उठाए थे। उनकी चिंताओं में ये समस्याएं भी थीं। लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि कम से कम सियासी दलों के लिए ये चिंताएं सिरे से ही गायब होती जा रही हैं। ऐसे में जैविक खेती अभियान के संस्थापक क्रांति प्रकाश ने जब राजधानी दिल्ली में पांच और छह जून को खाद्य सुरक्षा को लेकर सम्मेलन आयोजित किया तो ये उम्मीद कम ही थी कि राजनीति की दुनिया से लोगों की शिरकत हो। लेकिन सीपीआई के वरिष्ठ नेता और अखिल भारतीय किसान महासभा के महासचिव अतुल कुमार अनजान, मुजफ्फरपुर से जनता दल यूनाइटेड के सांसद कैप्टन जयनारायण निषाद और आंध्र प्रदेश कांग्रेस कमेटी के महासचिव के यादवरेड्डी ने जब पसीना और उमस से भरे सम्मेलन हॉल में घंटों तक शिरकत की तो ये उम्मीद जरूर बंध गई कि आने वाले दिनों में देश की खाद्य सुरक्षा की चिंताओं से सियासी दल अलग नहीं रहेंगे। क्रांति प्रकाश ने अपने शुरूआती भाषण में जिक्र किया कि ये सच है कि रासायनिक खादों और कीटनाशकों के सहारे हम देश की जरूरत के लिए अन्न उपजा रहे हैं। लेकिन पर्यावरण और अपने परिस्थितिकी तंत्र को इसके लिए जो कीमत चुकानी पड़ रही है, उसकी भरपाई मुश्किल है। उन्होंने किसानों से आह्वान किया कि देर ना हो जाए, इसके लिए जरूरी है कि वे जल्दी से जल्दी जैविक खेती की ओर लौट आएं।लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या परंपरागत खेती की ओर लौटना इतना आसान है। के यादवरेड्डी, जो खुद भी जैविक खेती अभियान से जुड़े हुए हैं, ने साफ कर दिया कि एकाएक इस खेती की ओर लौटना देश की खाद्य जरूरतों के मुताबिक अन्न उत्पादन में कमी ला सकता है। लिहाजा हमें किसानों के लिए ऐसा उपाय खोजना होगा ताकि हम अपने परिस्थितिकीय संतुलन को बचाए और बनाए रखते हुए देश की करीब सवा अरब जनसंख्या का पेट भरने का भी इंतजाम कर सकें। अतुल अनजान ने तो सम्मेलन में अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी की रिपोर्ट का जिक्र करते हुए सवाल ही उछाल दिया कि देश के लिए ज्यादा जरूरी उन करीब चौरासी लाख लोगों का पेट भरना है या फिर जैविक खेती की ओर लौटना। मनमोहन सरकार द्वारा गठित अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि देश की करीब 83 करोड़ 65 लाख जनसंख्या रोजाना बीस रूपए से भी कम कमाई कर पाती है। हालांकि अतुल अनजान ने जैविक खेती की संभावनाओं और जरूरत को नकारा भी नहीं। लेकिन ये भी सच है कि अगर सरकारें किसानों को जैविक खेती के चलते दो-चार साल तक होने वाले नुकसान की भरपाई और देश को खिलाने के लिए अन्न का इंतजाम कर सकें तो किसान फिर से परंपरागत खेती की ओर लौट सकते हैं। उन्होंने साफ कर दिया कि इस पर ध्यान दिए बिना जैविक खेती की ओर किसानों की वापसी आसान नहीं होगी। लेकिन जयपुर के मोरारका फाउन्डेशन के शुभेंदु दास ने इस बात से इनकार किया कि जैविक खेती में उत्पादन कम होता है। अपने अनुभवों की चर्चा करते हुए शुभेंदु ने कहा कि वास्तव में जैव उत्पाद देखने में छोटे या कम जरुर लगते है लेकिन उनका वजन ज्यादा होता है.ऐसा नहीं कि जैविक यानी परंपरागत तरीके से खेती हो नहीं रही है। लेकिन इससे पैदा हो रही फसलों का बाजार नहीं है। सम्मेलन में राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, बिहार, झारखंड हरियाणा और उत्तरप्रदेश समेत कई राज्यों से आए किसानों का यही सवाल था। किसानों का ये सवाल भी सही है। लेकिन ये भी सच है कि आज महानगरों में जैविक खेती के उत्पाद फैशन और लाइफ स्टाइल से जुड़ते जा रहे हैं। इसमें कभी गांधीजी की सादगी की प्रतीक रही खादी और फैब इंडिया जैसे देसी ब्रांड भी मददगार साबित हो रहे हैं। और प्रचार भी इसी का हो रहा है। पत्रकार उमेश चतुर्वेदी इस परिपाटी पर सवाल उठाने से नहीं हिचके। उनके मुताबिक पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के गांवों में रासायनिक खाद और कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से हो रहे दुष्प्रभावों से निकलने के लिए किसान फिर से परंपरागत खेती की ओर लौट रहे हैं। उन्होंने अपने गांव और आसपास में इसके चलते हो रहे बदलाव का जिक्र करते हुए कहा कि अब सवर्ण लोग अपने खेतों में दलित वर्ग से अपनी भेंड़ें और सूअर रात-रात भर तक ठहराने के लिए गुजारिश करने से गुरेज नहीं कर रहे। उन्होंने कहा कि मीडिया में इन प्रयासों को उचित जगह मिलनी चाहिए।गुजरात की अमित ग्रुप ऑफ़ कंपनीज के अमिताभ के सिंह ने भी इस मसले पर सरकार और नीति निर्धारकों का ध्यान जैविक खेती की ओर खींचने की जरुरत पर जोर दिया। जैविक खेती को लेकर गुजरात में काम कर रहे अमिताभ के मुताबिक जैविक खेती से अच्छी गुणवत्ता वाला पौष्टिक अन्न और फल उपजाया जा सकता है, वह भी खेत और पर्यावरण को नुकसान पहुचाये बिना। तमिलनाडु में चार सौ एकड़ में जैविक खेती करा रहीं डॉक्टर पवित्रा ने रासायनिक खेती से उपजाए गए अन्न, फल और सब्जियो के कुप्रभावों पर चिंता करते हुए इससे होने वाले नुकसान का सिलसिलेवार जिक्र किया। अमरावती विश्वविद्यालय की डॉक्टर अलका कर्वे ने जैविक खेती को लेकर अपने शोध का जिक्र करते हुए किसानों को बताया कि इस परंपरागत खेती की ओर लौटना हमारी मजबूरी नहीं, वक्त की जरूरत है।दो दिनों तक चले इस सम्मलेन में जैविक खेती के बारे में ज्यादा से ज्यादा लोगों को सही जानकारी देने के लिए काम करने का प्रस्ताव पारित किया गया। जैविक खेती अभियान योजना आयोग को अपनी रिपोर्ट और मांग पत्र भी पेश करने जा रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि किसानों की आत्महत्या की राजनीति से जूझ रही राजनीति और देश इस ओर सकारात्मक ढंग से सोचने की जहमत उठाना जरूर शुरू कर सकेगा।

Tuesday, June 16, 2009

पारंपरिक खेती की ओर लौटती दुनिया

प्रकृति की एक प्रक्रिया है-परंपराओं व इतिहास को दुहराने की। अगर आज की जैविक खेती को इस दुहराव की प्रक्रिया का अंग कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। रासायनिक खेती से अलगाव की शुरूआत ठीक उसी तरह पश्चिम से ही हुई है, जिस तरे जैविक व पारंपरिक खेती की बजाय रासायनिक खादों के जरिए खेतों की उर्वरा व कृषि उपज बढ़ाने की शुरूआत पश्चिम से हुई थी। सिर्फ गोबर के खाद के जरिए पिछले 40 वषो± तक भारत में खेती होती रही है। लेकिन हरी व गोबर खाद के मार्फत खेती का प्रभाव दुनियाभर में बढ़ रहा है। जैविक खेती व जैविक खाद्य पदार्थ उत्पादन का दुनियाभर में इतनी तेजी से प्रयार हो रहा है कि इसका एक संगठन भी बन गया है। इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ ऑर्गेनिक एग्रीकल्चर मूवमेंट नामक इस संगठन के आज दुनियाभर में फैली 764 संस्थाएं व स्वयंसेवी संगठन सदस्य हैं। कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया राज्य की खूबसूरत राजधानी विक्टोरिया में पिछले 21 से 28 अगस्त तक इसकी 14वीं `वल्र्ड ऑर्गेनिक कांग्रेस´ भी हुई थी। सच कहें तो भारतीय पद्धति की खेती की ओर दुनिया के बढ़ते झुकाव के बावजूद भारत सरकार के किसी संगठन की इस वल्र्ड कांग्रेस में कोई रूचि नहीं थी। मजे की बात है कि भारत सरकार के अधीन कार्यरत एपिडा व स्पाइसेज बोर्ड ऑफ इंडिया जैसे कुछ संगठन इसके सदस्य भी हैं। रासायनिक खादों के अंधाधुंध प्रयोग से पैदा हुई फसलों की विषाक्तता व शरीर को हानि पहुंचाने की वजह से अस्सी के दशक में दुनिया का ध्यान पारंपरिक तरीकों से खेती की ओर गया। पर्यावरण को बचाने की चिंताए भी इसी दौर की थीं। पारंपरिक खेती के इस नए रूपाकार को `जैविक खेती´ नाम दिया गया। फिर दुनिया भर में खासकर यूरोप व अमेरिका में जैविक खाद्यान्नों के प्रति रूझान बढ़ा। 1990 में जहां विश्व बाजार में जैविक खाद्यान्न का व्यापार एक बिलियन डॉलर था, वहीं आज यह बढ़कर 9।35 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया है। लेकिन मजे की बात है कि हाल तक प्राकृतिक व जैविक खेती के अगुआ रहे भारत की भागीदारी नाममात्र की ही है। ऐसा नहीं है कि यहां ऐसे संगठन सक्रिय नहीं है। वंदना शिवा का नवधान्य, जैविक खेती अभियान आदि संगठन सक्रिय हैं। लेकिन इस पारंपरिक खेती में भारत सरकार की दिलचस्पी न होने व विश्व बाजार में जैविक खाद्य पदाथो± की बढ़ती भागीदारी के बावजूद भारत सरकार का संगठन `एपिडा´ जागने की कोशिश भी नहीं कर रहा है, जबकि कायदे से उसका गठन भी इसलिए ही हुआ है। यहां तक कि कृषि मंत्रालय भी इस ओर चुप्पी साधे है। यहां गौरतलब है कि पश्चिम संस्कृति व अर्थव्यवस्था के प्रतीक अमेरिका व जर्मनी में जैविक खाद्यान्न उत्पादन में रिकार्ड बढ़त हुई है। नई अर्थव्यवस्था को अपना चुके चीन में भी पारंपरिक उत्पादन काफी हो रहा है। जापान, फिलीपींस जैसे देश अब जैविक खाद्य पदाथो± के उत्पादन को परंपरा व स्वास्थ्य रक्षा के अलावा बड़े बाजार के रूप में भी देख रहे हैं। ऐसे में भारत सरकार की उदासीनता पर अफसोस ही किया जा सकता है। जैविक खेती व खाद्यान्न के मामले में आज दुनिया इतनी आगे बढ़ गयी है कि ऐसे खाद्यान्नों के व्यापार हेतु आचार संहिता की मांग भी उठाई जा रही है। विक्टोरिया कांग्रेस में यह मसला जोर-शोर से उठाया गया था। दरअसल, जैविक उत्पाद में शुरूआती दौर में खर्च व मेहनत के कारण लागत बढ़ जाती है। इसलिए ऐसे खाद्यान्न भी महंगे होते हैं। आज इसी कारण से उसके प्रमाणीकरण की आचार संहिता बनाने की भी मांग उठ रही है। जैविक अभियान का ध्यान पर्यावरण की विविधता में लगातार आती जा रही कमी पर भी है। इसीलिए इस बार सामुदायिक बीज सेविंग पर भी जोर दिया गया। जैविक खेती के विचारकों का मानना है कि इसके जरिए जैव-विविधता और खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा मिलेगा। दुनियाभर में जैविक तरीके से खाद्यान्न उत्पादन बढ़ रहा है। लेकिन कई देशों में उन्हें उचित मूल्य तभी मिल सकता है, जब इन उत्पादनों को उचित तरीके से प्रमाणित किया जाए। कई देशों में किसानों को प्रमाण काफी कठिनाई से मिलता है। यह सरलता से मिल सके, इस पर भी चर्चा की गई। यहां यह बताना उचित ही होगा कि अभियान व संगठन के 25 वषो± के इतिहास में यह पहली कांग्रेस थी, जो पूरी तरह से किसानों को समर्पित थी। जैविक खेती का प्रभाव इतना बढ़ रहा है कि आज अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन तथ जर्मनी में जैविक बीयर व वाइन तक बिक रही है। अमेरिका में रासायनिक खादों के अंधाधुंध उपयोग का आज कुप्रभाव दिखने लगा है। अमेरिका में हर दिन 48 एकड़ जमीन इसी कारण से बंजर हो रही है। यही कारण है कि वहां जैविक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है। सच तो यह है कि अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा व जर्मनी में जैविक खेती के लिए सरकारें किसानों को सिब्सडी भी देती हैं। जबकि भारत में तो सिब्सडी ही खत्म करने पर जोर दिया जा रहा है। जैविक खेती के खिलाफ एक नया अभियान भी चल रहा है। फसलों को जेनेटिक परिवर्तन के इस अभियान के खिलाफ जैविक खेती के समर्थकों ने इस बार एक डॉलर की रकम जुटाकर अभियान शुरू किया। फसलों के जीन सुधार का सबसे बड़ा खतरा पारंपरिक जैव विविधता के नष्ट होने का है। लेकिन अब जैविक खेती के समर्थकों ने इसके खिलाफ अभियान शुरू कर दिया है। इसकी अनुगूंज पश्चिमी देशों में तो जरूर सुनी जाएगी लेकिन भारत में यह आवाज सुनी जाएगी या अनुगूंजित होगी? इस पर संदेह ही है। लेकिन इतना तय है कि छोटे-छोटे संगठन अपनी तरह से इस अभियान का अलख जगाए रखेंगे। पारंपरिकता में विश्वास रखने वाले भारतीय समाज को इसे स्वीकार करने में कोई दिक्कत नहीं होगी। ऐसा जैविक अभियान चलाने वाली दुनिया भी मानती है। --
हिन्दुस्तान : 18 सितम्बर 2002

Monday, June 15, 2009

विकास के गर्भ में छिपी भूख

15 June, 2009 क्रांति प्रकाश
Font size:

विकास की इच्छा मनुष्य में संभवत: तभी से है जब से उसे प्रकृति ने सचेत किया है। यह इच्छा बाद में `विकास की भूख´ के तौर पर तब्दील होती गई। आज मानव ने आर्थिक, भौतिक और सामाजिक हर स्तर पर विकास के नए आयाम हासिल किए हैं। तकनीकी क्रांति ने मनुष्य की दुनिया ही बदल दी है। इसके बावजूद विकास की ये भूख खत्म नहीं हुई है। शायद यही वजह है कि आज दुनियाभर में `विकास की भूख´ चर्चा में है।
यह अपनी व्यापकता और तीव्र परिवर्तनीयता के कारण विकास बनाम भूख की बहस में तब्दील हो गया है। बदलती दुनिया के बदलते प्रतिमानों के बीच विचारकों, राजनीतिज्ञों और विकास योजना के रणनीतिकारों के लिए सुलगता सवाल यह भी है, `विकास की कीमत पर भूख´ या `भूख की कीमत पर विकास´ में प्राथमिकता किसे दें? इसी विकास की भूख ने मानव को संवाद एवं संपर्क स्थापित करने की प्रेरणा दी। जहां वर्षों लगते थे वहीं कुछ पल में संवाद हो जाता है। कुछ घंटों में एक द्वीप से दूसरे द्वीप की यात्रा हो जाती है। मानव गुफा से निकलकर ऊंचे भवन में रहने लगा और आसमान में विचरण करने लगा है। औद्योगिक क्रांति और द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत परिवार छोटे-छोटे होने लगे, स्त्री-पुरुष के बीच विश्वास के अभाव में संबंध-विच्छेद होने लगे और बच्चों बल्कि पूरे परिवार के खान-पान पर असर होने लगा। गांव से कस्बों, कस्बों से महानगर तक बढ़ता मानव समाज यह भूलता जा रहा है कि महानगर उसे चमकीली जिंदगी तो दे सकता है परंतु अन्न प्रदान नहीं कर सकता। अन्न तो खेतिहर के श्रम से खेत में ही पैदा हो सकता है। परंतु आज केरल हो या बिहार, गांव युवाहीन हो गया है। जिसके कारण अन्न उत्पादन पर असर पड़ा है। इस वर्ष पंजाब में खेतिहर मजदूरों का अभाव रहा।
इसी सोच का परिणाम है कि पूरी दुनिया में गांव तेजी से उजाड़े गये और पर्यावरण को पूरी तरह से नष्ट किया गया. भारत में ही अब तक 35 हजार गांव विकास और शहरीकरण की भेंट चढ़ चुके हैं. भारत के नक्से से ये गांव पूरी तरह से गायब हो चुके हैं. आज उन गांवों की जगह शहर की गलियां अस्तित्व में आ चुकी हैं. इन गांवों के खत्म होने का मतलब है कि खेती योग्य जमीन भी खत्म हुई. पशु और पर्यावरण खत्म हुआ और शहरीकरण ने विकास के नाम पर खेतों पर अट्टालिकाओं का एक बदनुमा धब्बा चस्पा कर दिया. पुराने लोग जो इस खेत में अनाज पैदा करते थे वे तो गायब ही हुए जो नये लोग आकर इन जमीनों पर बसे अब उन्हें अन्न कौन मुहैया करायेगा?
अमेरिकी कृषि विभाग के आर्थिक शोध के अनुसार देश (अमेरिका) में विकसित और आर्थिक रूप से संपन्न तीन करोड़ अस्सी लाख लोग भुखमरी के कगार पर हैं। एक करोड़ चालीस लाख बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। 21-22 करोड़ की आबादी वाले अमेरिका की यह हालत है। भारत और चीन की हालत तो और भी बदतर है। यही वजह है कि यूरोपीय संघ कृषि पर अपने बजट का चालीस प्रतिशत व्यय करने जा रहा है। यूरोपीय संघ अपने किसानों को परती जमीन रखने पर अनुदान देता है ताकि खेती की उर्वरा शक्ति बनी रहे। स्वतंत्रता के बाद भारत ने विकास का जो मॉडल अपनाया उससे आर्थिक विषमता, पर्यावरण की समस्या, अपराध, महिलाओं पर अत्याचार, मातृभाषा की उपेक्षा में बढ़ोतरी हुई है। विकास की इस अंधी आंधी में केवल गांव ही गायब नहीं हुए हैं. फसलों के प्रकार और बीजों की विविधता भी गायब हुई है. जिस पंजाब में सन् 1961 से पहले 21 प्रकार की फसल होती थी वहां आज सिर्फ 9 प्रकार की ही फसल पैदा की जा रही है। प्रकृति ने अस्सी हजार प्रकार के अनाज, फल, सब्जी मानव व अन्य जीवों के लिए उपलब्ध किए हैं। तीन हजार प्रकार के फलों, सब्जियों और अनाज का हजारों वर्षों से उपयोग हो रहा है, पर यह भी सच है कि अदृश्य शक्तियों के कारण संसार की 75 प्रतिशत जनसंख्या आठ प्रकार के आहार ग्रहण करने को मजबूर हैं। आज से पचास वर्ष पूर्व तक संसार की किसी संस्कृति में सोयाबीन का प्रचलन नहीं था। पर आज जानवरों के लिए चारा और खाद्य तेल के तौर पर सोया का जमकर इस्तेमाल हो रहा है, विशेषकर अनुवांशिक परिवर्धन के विधि निर्मित बीज वाले सोया का प्रचलन है। आज भारत में खाद्य तेल आयात करना पड़ रहा है। एक दशक पूर्व गांव-गांव में सरसों के तेल की पेराई होती थी। अदृश्य शक्ति के कारण लगभग तेल पेराई की दस लाख इकाइयां बंद हो गई और 10 लाख परिवार बेरोजगार हो गए। एक किलो मांस के लिए सात किलो अनाज चाहिए। अब तो वाहन चलाने के लिए पेट्रोल, डीजल, गैस की जगह जैव ईंधन की आवश्यकता पड़ने लगी है। प्रकृति अपने जीवों के लिए आहार की व्यवस्था कर सकती है पर मानव निर्मित यंत्र के लिए नहीं। इसी कारण संसार में भुखमरी बढ़ रही है, लोग बीमार हो रहे हैं, लगभग एक अरब लोग भुखमरी के शिकार हैं तो दूसरी ओर लगभग दो अरब मोटापा के शिकार हैं। इस सत्य को हम झुठला नहीं सकते इसलिए हमें विकास की जगह `उपयुक्त विकास का वातावरण´ की नीति बनानी होगी। भूख मिटाने के लिए विविध प्रकार के अनाज का उपयोग करना होगा। जैव विविधता के संकट को खत्म करना होगा और सबसे बड़ी बात यह कि महानगरों के साथ-साथ गांव को भी ध्यान में रखना होगा। देश की राजधानी दिल्ली में ऊर्जा का संकट नहीं है, पर दिल्ली के पड़ोस में ऊर्जा का संकट है। अगर उर्जा संकट का स्थाई समाधान करना है और सबको उर्जा मुहैया करानी है तो बड़े बांध की जगह छोटे बांध बनाने होंगे। प्रकृति द्वारा उत्पादित ऊर्जा व प्रकृति से छेड़छाड़ किए बिना ऊर्जा का उत्पादन करना होगा तभी हम आने वाले अंधकारमय युग से बच सकते हैं क्योंकि तेल और गैस 22वीं शताब्दी में उपलब्ध नहीं रहेगा। इसलिए हमें तेल आधारित व्यवस्था से मुक्त होना होगा। ऊर्जा अपव्यय करने वाले कायो± से दूर रहना होगा तभी हम भूख से मुक्त हो सकते हैं। हम लोग जिस अमेरिकी व्यवस्था की फोटोकापी बन रहे हैं, वह स्वयं आज असुरक्षा, अभाव, अस्वस्थता, आर्थिक अराजकता और आयात पर निर्भर है। यह व्यवस्था कचरा निर्यात करती है और मानव संसाधन तथा प्राकृतिक आहार का आयात करती है। इस व्यवस्था में रहने वाले बच्चे खिलौनों के लिए चीन और दूसरे एशियाई देशों पर निर्भर हैं। उस व्यवस्था की छायाप्रति बनने से अच्छा है कि हम अपने मूल भारतीय दर्शन को अपना जीवन दर्शन बनाये रखें जो कहता है कि `सांई इतना दीजिए, जामे कुटुंब समाय, मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जा

Sunday, May 31, 2009

Happiness for the Organic Farmer

Happiness for the Organic Farmer
Prakash, K.1
Abstract
After the green revolution, millions of Indian farmers migrated from rural to urban areas. Farmers living in rural areas were growing
cotton crops and market oriented crops by taking loans from banks and private lenders at high interest rates, which has
unfortunately ended lives of approximately 150,000 farmers. Nevertheless, organic farmers using traditional seeds without
government subsidies lives with nature happily.
In India, there are approximately one million hectares of certified organic land and more than ten million hectares of uncertified
organic land. The latter type of land is being used by farmers for their own consumption.
Since globalization, the Indian government is always against the farmer's community. All the development, like schools, colleges,
hospitals, and electricity are provide to urban areas, and this results in forcing the people to migrate from rural areas to urban
areas. Now, special economic zones, big national highways, and malls are being constructed on arable land, which is dangerous
for food security.
The government of India is talking about a second green revolution for food security, but food grains are always available in India.
The Indian government is importing millions of tons of wheat from Australia, but in India, the farmers and corporate companies
already have stock of wheat available. India is importing wheat, pulse, and edible oil at a high rate, but they do not purchase these
products at the same rate on the local market.
The government of India and research organizations always blame the Indian farmers that they are not using proper fertilizer,
pesticides, and good seeds. However, in India, the climate situation fluctuates, and sometimes there are floods and sometimes
drought. Agriculture totally depends upon climate, and these research organizations and corporate people do not understand the
climate problems and prepare the false data.
These corporate organizations purchase grains, pulse, and vegetables and other food products at very cheap rates from the
farmers and stock them. They wait for the right time to sell these food products at higher rate to the consumers.
In India, major problems of food security are as follows:
1. Seed is not available easily to the farmers.
2. Special economic zones, national highway, malls, and urban extensions are using approximately 30 million hectares of
arable land.
3. Cutting millions of trees affects the climate.
4. Farmers are also suffering from a shortage of animals.
5. The big companies store the food items and sell at high prices to the urban consumers.
So many non-governmental organizations are awakening the farmers and consumers from last two decades. Now, most consumers
and farmers understand the benefit of organic farming, and the result is that not a single organic farmer has committed suicide.
1 Jaivik Kheti Abhiyan, India, e-mail: kranti_prakash@hotmail.com

Wednesday, May 27, 2009

पेठिया

पेठिया की खाली होती पेटियां
26 May, 2009 क्रांति प्रकाश
Font size:

बहुत सालों बाद इस बार गांव (गंगेया जिला मुजफ्फरपुर) जाना हुआ और संयोग से कुछेक दिन रूकने का भी सौभाग्य मिला। इस दौरान लोगों से मिलने-मिलाने के अलावा काफी कुछ देखने को मिला और इसी कड़ी में एक दिन पेठियां जा पहुंचा। पेठियां यानी ग्रामीण बाजार जो हर इलाके के कुछ गांव में हर रोज या सप्ताह में एक या दो बार लगता है। पूर्वांचल में इसे हाट या हटिया भी कहा जाता है और दिल्ली जैसे महानगरों में सोम बाजार से लेकर शुक्र या शनि बाजार तक। हालांकि पेठियां शहर के साप्ताहिक बाजार से इस मायने में अलग है कि यहां का ज्यादातर कारोबार दिन के उजाले में होता है और शाम होते-होते सिमट जाता है।
यह देखकर अच्छा लगा कि गांव में आये तमाम बदलावों के बावजूद पेठियां अपनी जगह कायम है, कमोबेश उसी रूप में जैसा आज से 20-25 साल पहले होता था। दूर-दूर से आने वाले अनाज और पशुओं के व्यापारी... मुढ़ी-कचरी और जलेबी बनाते और बेचते हलवाई की दुकान के अलावा हल्दी-मिर्च बेचने वालों से लेकर टिकुली, सिंदूर और चूड़ियां बेचने वाले तक। गांव के लोगों के लिए पेठियां न केवल रोजमर्रा की चीज उपलब्ध कराता है बल्कि अपने उत्पाद बेचकर कुछ पैसा बनाने में भी मदद करता है। स्थानीय उत्पाद ही बेचे और खरीदे जाते हैं। कम से कम मेरी नजरों में ये ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था की धूरी है क्योंकि पशुओं और मोटे अनाजों के लिए आधुनिक बाजार की कल्पना ही अव्यवहारिक है। इसके अलावा आस-पास के इलाकों के लोगों के लिए यह एक सांस्कृतिक और राजनीतिक मंच का भी काम करता है जहां तमाम समसामयिक मुद्दों पर खुलकर चर्चा होती है। इसके बावजूद सरकार का इस ओर रत्ती भर भी ध्यान नहीं है और यही चिंता का विषय है। एक अनुमान के अनुसार देशभर में करीब 2 लाख पेठियां हैं और इन ग्रामीण बाजारों में अरबों का कारोबार होता है। कमाल की बात यह है कि राज्य सरकारों को इन बाजारों से करोड़ों की आमदनी होती है पर खर्चा एक पाई भी नहीं है। और लगता नहीं कि मॉल कल्चर के पीछे पागल हुए जा रहे सरकारी बाबू लोग इस ओर कुछ करने के मूड में हैं। लेकिन बदले समय में इस पर ध्यान देने की जरूरत है क्योंकि जिस तरह हमारे देश में आर्थिक असमानता बढ़ी है, वह चिंताजनक है। और इस स्थिति से उबरने का एक असरदार उपाय यह हो सकता है कि गांव के पेठियां जैसे बाजारों को एक व्यवस्थित रूप दिया जाए। इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था में गति लाने में मदद मिलेगी। इसके लिए बहुत ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं है। एक तो इसे सड़कों से जोड़ने की जरूरत है, जो प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत आसानी से किया जा सकता है। और दूसरा कि जहां भी ये बाजार लगता है वहां कम से कम एक विश्राम गृह और एक गोदाम बनवा दिया जाए। ताकि यहां आने वाले व्यापारियों को ठहरने और अपना माल रखने की सुविधा मिल जाए। दरअसल इन व्यापारियों की एक बड़ी चिंता यह होती है कि बारिश में सामान भीग कर खराब न हो जाए। इसके एवज में राज्य सरकार या स्थानीय निकाय चाहे तो वहां दुकान लगाने वालों से कुछ शुल्क ले सकती है। अगर सुविधा मिले तो किसी को इस पर एतराज नहीं होगा। अब राज्य सरकारें ऐसा करेंगी, यह कहना कठिन है। क्योंकि वर्तमान अर्थव्यवस्था में मॉल का जोर है और हमारे नीति निर्धारक भी यही मानकर चलते हैं कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था का स्वरूप और गांव के लोगों की जरूरतें शहर के लोगों के जैसी ही हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह ठीक ऐसा ही है जैसे धरती पर बैठकर चांद के वातावरण की कल्पना। मुझे लगता है कि आज भी ज्यादातर बाबूओं को यह अंदाजा नहीं है कि गांव में टूथपेस्ट और ब्रश नहीं, दातून हावी है और डिब्बा बंद सामान की खपत भी काफी कम है। सौंदर्य प्रसाधन को छोड़कर बाकी चीजों के मामले में गांव के लोग आज भी स्थानीय उत्पाद को प्राथमिकता देते हैं। लेकिन लगता नहीं कि सरकार को इसकी कोई फिक्र है। क्योंकि पेठियां का व्यापारी या खरीदार फिक्की के कार्यक्रम में बोलने नहीं जाता और न ही इनका कोई आदमी किसी अंग्रेजी चैनल पर फांय-फांय करता है। बहरहाल, उम्मीद पर ही दुनिया कायम है और इसलिए उम्मीद करें कि बंद होते मॉल के इस दौर में राज्य सरकारें हजारों मेगावाट बिजली डकारने वाले दानवीय मॉल के साथ ही इन पेठियों पर भी ध्यान देने की कोशिश करेगी। कम से कम बिहार के सुशासन से काफी उम्मीदें हैं जिसने कब्रगाहों में दफन मुर्दों के लिए भी काफी कुछ किया है।

Sunday, May 17, 2009

CLIMATE CHANGE AND ORGANIC FARMING IN SOUTH ASIA

-Kranti Prakash
During last decade in South Asian Countries people have been experiencing climatic shift and change। There is no conventional type of season felt or exist any more। So, some areas, which had heavy rain fall got submerged for months and areas without or scanty rainfall suffered due to acute droughts. Approx. 1,50,000 farmers have ended their lives. Market oriented and sensex based economy has failed to provide patch-work to heal climate wounded farmers.
Approximately 4 million hectares of certified organic land is available in South Asian Countries, where organic farming is being practiced every year. To fulfill market demand of western world and local area the farmers continue to be forced to use chemicals like fertilizers, pesticides, weedicides, insecticide etc. to get higher yield without knowing the unrepairable effects of these. These chemicals have polluted the sweet water available in different water-bodies.

Unplanned industrialization and creation of markets as well as infrastructure have increased demands of basic things like land, water, energy and human. But without understanding, the relation between progress, development and growth, the governments have gone for heavy industrialization. Due to this many areas in this region have no remains of proper food chain and food web.

Side effects of climatic change

Many animals, birds, insects etc. are becoming extinct or have become endangered species because they are not getting proper climate to breed, feed and exist. Take the case of peacock in India, they are dying. Higher birds like kites and vulchers will not be seen in future in South Asia. Water of major rivers e.g. Ganga, Yamuna, Indus, Yeravadi etc. is not safe for drinking as well as human contact. Aquatic animals in these rivers are decreasing like anything.

Pakistan and Rajasthan (desert part of India) were worst hit by unusual heavy rain fall in 2007. Some islands are frequently being hit by Tsunami these years, if it is not due to climate change then what is the cause?

Other draw backs of climatic change

1) Quality of water goes down and also water level decreases, 2) Frequent floods and droughts increase in many regions, 3) Hydropower and biomass production goes down, 4) Waterborne diseases increase such as malaria, dengue and cholera, 5) Change in weather causes deaths, 6) Sea life gets affected, 7) Agricultural production decreases.

Migration in search of food

In last two decades huge migration from rural to urban areas has been seen. Big cities like Delhi, Lahore, Kathmandu, Colombo, Bombay etc. are flooded by human and have swollen up like big balloon. They can burst up any time. These migrations are not done willingly but these are forced due to circumstances in search of better living. These migrants having zeal to fill the gap of employment opportunities in urban areas created jealousy in local inhabitants. Locals are opposing migrants in South Asian economic hub centers. These days economic hubs have become centers of strikes, processions and Goondaism.

Answer for these

Only organic farming has capacity to accommodate large rural youth which has cyclic developmental chain. It has been seen that the farmers who are practicing agriculture in traditional or organic way have not committed suicide. Millions of farmers are now re-thinking in the interest of nature and future generation and retreating back to organic farming and commuting through public transport to save environment. Modern governments are encouraging chemical based farming by giving heavy subsidies to their universities produced graduated farmers but social organizations and some rural leaders are promoting organic farming at different areas. The only hope exists in organic farming which can sustain human life on earth.
(Organic Agriculture and Climate Change international conferenceApril, 17th-18thEnita Clermont, site de marmilhat, 63370 Lempdes, France, poster paper

Saturday, May 16, 2009

किसी को नहीं चाहिए राजनीतिक कार्यकर्ता

क्रांति प्रकाश

पिछले कुछ दशकों में भारतीय राजनीति और राजनीतिक दलों में ढेरसारे बदलाव आए हैं और ये बदलाव चौतरफा हैं। इस दौरान राजनीति के मायने तो बदले ही हैं, राजनीतिक दलों के कामकाज के तौर-तरीकों में भी भारी बदलाव आया है। इस बदलाव का एक परिणाम यह भी है कि राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता गायब होते जा रहे हैं। सच बात यह है कि वामदलों को छोड़कर तमाम पार्टियों में कार्यकर्ताओं का टोटा है और भारतीय लोकतंत्र के लिए यह अच्छा संकेत नहीं है। इस मामले को लेकर राजनीतिक दलों की अंदरूनी सोच क्या है, यह तो मालूम नहीं, लेकिन तरह से तमाम पार्टियां कार्यकर्ताओं की अनदेखी कर रही हैं, उससे तो यही लगता है कि वे कार्यकर्ताओं से पीछा छुड़ाने में ही भलाई समझने लगे हैं। सवाल है कि ऐसा क्यों है?


पहला कारण तो यह है कि हमारे राजनीतिक दल इन दिनों व्यवसायिक घरानों की तर्ज पर कार्य करने लगे हैं। शीर्ष स्तर पर जितने भी निर्णय लिए जाते हैं, उसमें तमाम फैसले हाईकमान के स्तर पर लिए जाते हैं। जहां थोड़ा बहुत आंतरिक लोकतंत्र है, वहां भी मुश्किल से दर्जनभर लोग यह तय कर देते हैं कि अमुक राज्य या अमुक चुनाव के लिए क्या अच्छा रहेगा। कहने को कहा जाता है कि पार्टी ने फैसला लेने से पहले राज्य के प्रभारी की राय ली थी और गुप्त सर्वे तो बाजार से ही करवाया जाने लगा है। पहले राजनीतिक दलों के अपने कार्यकर्ता यह कार्य किया करते थे। वे पार्टी नेतृत्व को बताते थे कि जनता की समस्या क्या है, वे पार्टी या सरकार से क्या चाहते हैं। चुनाव के लिए उम्मीदवार तय करने में कार्यकर्ताओं की राय अहम मानी जाती थी, इसलिए इंदिरा गांधी जैसी नेता भी हर रोज सैकड़ों लोगों से मिलती थीं।
अब मामला दूसरा है। वो दिन गए, जब कार्यकर्ता ही आगे चलकर देश और पार्टी में महत्वपूर्ण पद संभालता था। पहले किसी भी पार्टी में प्रवेश का रास्ता यही होता था कि पार्टी की प्राथमिक सदस्यता ली जाए। लेकिन अब यह जरूरी नहीं, हर पार्टी को किसी गोविंदा और किसी संजय दत्त की तलाश रहती है। जमाना हवाई नेताओं का है और यह साबित हो चुका है कि प्रधानमंत्री बनने के लिए भी अच्छा नेता होना या चुनाव जीतना जरूरी नहीं है। आज नेता होने के लिए पैसा और बाहुबल ही काफी है। ऊपर से नीचे तक पैसे का लेन-देन होने लगा है। माग्रेट अल्वा का मामला-ज्यादा पुराना नहीं है। कुछ पार्टियां तो खुलेआम टिकट की बोली लगाती हैं। साफ है कि अब राजनीति और लोकतांत्रिक परंपराओं का रत्तीभर भी ज्ञान होना अच्छा माना जाने लगा है। क्योंकि तभी तो वह व्यक्ति हाईकमान की तमाम बातों की हां में हां मिलाएगा।
सोमनाथ चटर्जी जैसे पुराने नेताओं को इसका अफसोस होता है कि अब संसद में वैसी बहस नहीं होती, जैसे पहले हुआ करती थी। अब संसद में शोरगुल ज्यादा होता है और महत्वपूर्ण मसलों पर बहस के दौरान ज्यादातर सांसद सदन से गायब रहते हैं। सवाल है ऐसा क्यों नहीं होगा? जब संसद में ऐसे लोग जाएंगे, जिन्हें देश और समाज के बारे में कुछ नहीं पता, तो ऐसा ही होगा। यकीन मानिए जिस परमाणु करार को लेकर इतना हंगामा हुआ, उसके बारे में मुश्किल से 10 फीसदी सांसदों को ही थोड़ बहुत पता था। ज्यादातर सांसद अपने नेताओं को खुश करने के लिए परमाणु करार का विशेषज्ञ होने का दिखावा कर रहे थे। कार्यकर्ताओं की उपेक्षा के पीछे एक और सोच काम कर रही है। ज्यादातर नेताओं का मानना है कि आधुनिक संचार माध्यमों खासकर टेलीविजन के जमाने में जनता तक अपनी बात पहुंचाने के लिए कार्यकर्ताओं पर निर्भर होना, समय और संसाधन की बर्बादी है। इसी सोच को लेकर एनडीए सरकार इंडिया शाइनिंग लेकर आई थी और वर्ष 2004 के आम चुनाव में गच्चा खा बैठी।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में कार्यकर्ताओं की भूमिका अहम होती है। वे केवल जनता नेता के बीच संवाद का माध्यम होते हैं, बल्कि नेताओं को जवाबदेह भी बनाते हैं। जनता में राजनीतिक चेतना जगाने में निचले स्तर के कार्यकर्ताओं का अहम योगदान होता है। अस्सी के दशक तक वोटरों को बूथ तक लाने में इन कार्यकर्ताओं का बड़ा योगदान होता था। आज इस काम के लिए भाड़े पर आदमी रखे जाते हैं, जिनका किसी दल और विचारधारा से कोई लेना-देना नहीं होता। वे महज पैसे के लिए काम करते हैं और इस काम के लिए ऐसे लोगों को चुना जाता है, जिन्हें आसपास के इलाकों में शरीफों की श्रेणी में नहीं रखा जाता। जनता जब देखती है कि राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ताओं की जगह असामाजिक तत्वों ने ले ली है तो वह राजनीति से मुंह चुराने लगती है। और मेरा मानना है कि इसी का नतीजा है कि लोग अब वोट देने से बचना चाहते हैं। देश में और राजनीतिक दलों में लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम रहे। इसके लिए यह जरूरी है कि निचले स्तर पर समर्पित कार्यकर्ताओं को तैयार किया जाए। सही मायनों में भविष्य के नेताओं का प्रशिक्षण यहीं होता है। वैसे भी संसदीय प्रणाली को चलाने के लिए लाखों समर्पित कार्यकर्ताओं की जरूरत होती है। पार्टी और सरकार के महत्वपूर्ण पदों पर बाहुबली या गैर राजनीतिक लोगों को बिठाया जाएगा तो परिणाम अच्छा नहीं होगा। ये लोग चुनाव तो जीत सकते हैं, लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में ढलकर काम करेंगे, यह मुश्किल है। शासन में संवेदनहीनता की एक बड़ी वजह राजनीति में ऐसे लोगों का प्रवेश है, जिन्हें आम लोगों के सरोकार से कोई मतलब नहीं है। इसलिए यह जरूरी है कि राजनीतिक दल समर्पित कार्यकर्ताओं की पौध को बचाने की कोशिश करें और उन्हें उचित सम्मान दें। लोकतांत्रिक व्यवस्था में पद, पैसा, प्रचार और परिवार के बोलबाले को लगाम लगाना है तो समर्पित कार्यकर्ताओं को आगे लाना होगा।