पेठिया की खाली होती पेटियां
26 May, 2009 क्रांति प्रकाश
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बहुत सालों बाद इस बार गांव (गंगेया जिला मुजफ्फरपुर) जाना हुआ और संयोग से कुछेक दिन रूकने का भी सौभाग्य मिला। इस दौरान लोगों से मिलने-मिलाने के अलावा काफी कुछ देखने को मिला और इसी कड़ी में एक दिन पेठियां जा पहुंचा। पेठियां यानी ग्रामीण बाजार जो हर इलाके के कुछ गांव में हर रोज या सप्ताह में एक या दो बार लगता है। पूर्वांचल में इसे हाट या हटिया भी कहा जाता है और दिल्ली जैसे महानगरों में सोम बाजार से लेकर शुक्र या शनि बाजार तक। हालांकि पेठियां शहर के साप्ताहिक बाजार से इस मायने में अलग है कि यहां का ज्यादातर कारोबार दिन के उजाले में होता है और शाम होते-होते सिमट जाता है।
यह देखकर अच्छा लगा कि गांव में आये तमाम बदलावों के बावजूद पेठियां अपनी जगह कायम है, कमोबेश उसी रूप में जैसा आज से 20-25 साल पहले होता था। दूर-दूर से आने वाले अनाज और पशुओं के व्यापारी... मुढ़ी-कचरी और जलेबी बनाते और बेचते हलवाई की दुकान के अलावा हल्दी-मिर्च बेचने वालों से लेकर टिकुली, सिंदूर और चूड़ियां बेचने वाले तक। गांव के लोगों के लिए पेठियां न केवल रोजमर्रा की चीज उपलब्ध कराता है बल्कि अपने उत्पाद बेचकर कुछ पैसा बनाने में भी मदद करता है। स्थानीय उत्पाद ही बेचे और खरीदे जाते हैं। कम से कम मेरी नजरों में ये ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था की धूरी है क्योंकि पशुओं और मोटे अनाजों के लिए आधुनिक बाजार की कल्पना ही अव्यवहारिक है। इसके अलावा आस-पास के इलाकों के लोगों के लिए यह एक सांस्कृतिक और राजनीतिक मंच का भी काम करता है जहां तमाम समसामयिक मुद्दों पर खुलकर चर्चा होती है। इसके बावजूद सरकार का इस ओर रत्ती भर भी ध्यान नहीं है और यही चिंता का विषय है। एक अनुमान के अनुसार देशभर में करीब 2 लाख पेठियां हैं और इन ग्रामीण बाजारों में अरबों का कारोबार होता है। कमाल की बात यह है कि राज्य सरकारों को इन बाजारों से करोड़ों की आमदनी होती है पर खर्चा एक पाई भी नहीं है। और लगता नहीं कि मॉल कल्चर के पीछे पागल हुए जा रहे सरकारी बाबू लोग इस ओर कुछ करने के मूड में हैं। लेकिन बदले समय में इस पर ध्यान देने की जरूरत है क्योंकि जिस तरह हमारे देश में आर्थिक असमानता बढ़ी है, वह चिंताजनक है। और इस स्थिति से उबरने का एक असरदार उपाय यह हो सकता है कि गांव के पेठियां जैसे बाजारों को एक व्यवस्थित रूप दिया जाए। इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था में गति लाने में मदद मिलेगी। इसके लिए बहुत ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं है। एक तो इसे सड़कों से जोड़ने की जरूरत है, जो प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत आसानी से किया जा सकता है। और दूसरा कि जहां भी ये बाजार लगता है वहां कम से कम एक विश्राम गृह और एक गोदाम बनवा दिया जाए। ताकि यहां आने वाले व्यापारियों को ठहरने और अपना माल रखने की सुविधा मिल जाए। दरअसल इन व्यापारियों की एक बड़ी चिंता यह होती है कि बारिश में सामान भीग कर खराब न हो जाए। इसके एवज में राज्य सरकार या स्थानीय निकाय चाहे तो वहां दुकान लगाने वालों से कुछ शुल्क ले सकती है। अगर सुविधा मिले तो किसी को इस पर एतराज नहीं होगा। अब राज्य सरकारें ऐसा करेंगी, यह कहना कठिन है। क्योंकि वर्तमान अर्थव्यवस्था में मॉल का जोर है और हमारे नीति निर्धारक भी यही मानकर चलते हैं कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था का स्वरूप और गांव के लोगों की जरूरतें शहर के लोगों के जैसी ही हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह ठीक ऐसा ही है जैसे धरती पर बैठकर चांद के वातावरण की कल्पना। मुझे लगता है कि आज भी ज्यादातर बाबूओं को यह अंदाजा नहीं है कि गांव में टूथपेस्ट और ब्रश नहीं, दातून हावी है और डिब्बा बंद सामान की खपत भी काफी कम है। सौंदर्य प्रसाधन को छोड़कर बाकी चीजों के मामले में गांव के लोग आज भी स्थानीय उत्पाद को प्राथमिकता देते हैं। लेकिन लगता नहीं कि सरकार को इसकी कोई फिक्र है। क्योंकि पेठियां का व्यापारी या खरीदार फिक्की के कार्यक्रम में बोलने नहीं जाता और न ही इनका कोई आदमी किसी अंग्रेजी चैनल पर फांय-फांय करता है। बहरहाल, उम्मीद पर ही दुनिया कायम है और इसलिए उम्मीद करें कि बंद होते मॉल के इस दौर में राज्य सरकारें हजारों मेगावाट बिजली डकारने वाले दानवीय मॉल के साथ ही इन पेठियों पर भी ध्यान देने की कोशिश करेगी। कम से कम बिहार के सुशासन से काफी उम्मीदें हैं जिसने कब्रगाहों में दफन मुर्दों के लिए भी काफी कुछ किया है।
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