Tuesday, June 16, 2009

पारंपरिक खेती की ओर लौटती दुनिया

प्रकृति की एक प्रक्रिया है-परंपराओं व इतिहास को दुहराने की। अगर आज की जैविक खेती को इस दुहराव की प्रक्रिया का अंग कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। रासायनिक खेती से अलगाव की शुरूआत ठीक उसी तरह पश्चिम से ही हुई है, जिस तरे जैविक व पारंपरिक खेती की बजाय रासायनिक खादों के जरिए खेतों की उर्वरा व कृषि उपज बढ़ाने की शुरूआत पश्चिम से हुई थी। सिर्फ गोबर के खाद के जरिए पिछले 40 वषो± तक भारत में खेती होती रही है। लेकिन हरी व गोबर खाद के मार्फत खेती का प्रभाव दुनियाभर में बढ़ रहा है। जैविक खेती व जैविक खाद्य पदार्थ उत्पादन का दुनियाभर में इतनी तेजी से प्रयार हो रहा है कि इसका एक संगठन भी बन गया है। इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ ऑर्गेनिक एग्रीकल्चर मूवमेंट नामक इस संगठन के आज दुनियाभर में फैली 764 संस्थाएं व स्वयंसेवी संगठन सदस्य हैं। कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया राज्य की खूबसूरत राजधानी विक्टोरिया में पिछले 21 से 28 अगस्त तक इसकी 14वीं `वल्र्ड ऑर्गेनिक कांग्रेस´ भी हुई थी। सच कहें तो भारतीय पद्धति की खेती की ओर दुनिया के बढ़ते झुकाव के बावजूद भारत सरकार के किसी संगठन की इस वल्र्ड कांग्रेस में कोई रूचि नहीं थी। मजे की बात है कि भारत सरकार के अधीन कार्यरत एपिडा व स्पाइसेज बोर्ड ऑफ इंडिया जैसे कुछ संगठन इसके सदस्य भी हैं। रासायनिक खादों के अंधाधुंध प्रयोग से पैदा हुई फसलों की विषाक्तता व शरीर को हानि पहुंचाने की वजह से अस्सी के दशक में दुनिया का ध्यान पारंपरिक तरीकों से खेती की ओर गया। पर्यावरण को बचाने की चिंताए भी इसी दौर की थीं। पारंपरिक खेती के इस नए रूपाकार को `जैविक खेती´ नाम दिया गया। फिर दुनिया भर में खासकर यूरोप व अमेरिका में जैविक खाद्यान्नों के प्रति रूझान बढ़ा। 1990 में जहां विश्व बाजार में जैविक खाद्यान्न का व्यापार एक बिलियन डॉलर था, वहीं आज यह बढ़कर 9।35 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया है। लेकिन मजे की बात है कि हाल तक प्राकृतिक व जैविक खेती के अगुआ रहे भारत की भागीदारी नाममात्र की ही है। ऐसा नहीं है कि यहां ऐसे संगठन सक्रिय नहीं है। वंदना शिवा का नवधान्य, जैविक खेती अभियान आदि संगठन सक्रिय हैं। लेकिन इस पारंपरिक खेती में भारत सरकार की दिलचस्पी न होने व विश्व बाजार में जैविक खाद्य पदाथो± की बढ़ती भागीदारी के बावजूद भारत सरकार का संगठन `एपिडा´ जागने की कोशिश भी नहीं कर रहा है, जबकि कायदे से उसका गठन भी इसलिए ही हुआ है। यहां तक कि कृषि मंत्रालय भी इस ओर चुप्पी साधे है। यहां गौरतलब है कि पश्चिम संस्कृति व अर्थव्यवस्था के प्रतीक अमेरिका व जर्मनी में जैविक खाद्यान्न उत्पादन में रिकार्ड बढ़त हुई है। नई अर्थव्यवस्था को अपना चुके चीन में भी पारंपरिक उत्पादन काफी हो रहा है। जापान, फिलीपींस जैसे देश अब जैविक खाद्य पदाथो± के उत्पादन को परंपरा व स्वास्थ्य रक्षा के अलावा बड़े बाजार के रूप में भी देख रहे हैं। ऐसे में भारत सरकार की उदासीनता पर अफसोस ही किया जा सकता है। जैविक खेती व खाद्यान्न के मामले में आज दुनिया इतनी आगे बढ़ गयी है कि ऐसे खाद्यान्नों के व्यापार हेतु आचार संहिता की मांग भी उठाई जा रही है। विक्टोरिया कांग्रेस में यह मसला जोर-शोर से उठाया गया था। दरअसल, जैविक उत्पाद में शुरूआती दौर में खर्च व मेहनत के कारण लागत बढ़ जाती है। इसलिए ऐसे खाद्यान्न भी महंगे होते हैं। आज इसी कारण से उसके प्रमाणीकरण की आचार संहिता बनाने की भी मांग उठ रही है। जैविक अभियान का ध्यान पर्यावरण की विविधता में लगातार आती जा रही कमी पर भी है। इसीलिए इस बार सामुदायिक बीज सेविंग पर भी जोर दिया गया। जैविक खेती के विचारकों का मानना है कि इसके जरिए जैव-विविधता और खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा मिलेगा। दुनियाभर में जैविक तरीके से खाद्यान्न उत्पादन बढ़ रहा है। लेकिन कई देशों में उन्हें उचित मूल्य तभी मिल सकता है, जब इन उत्पादनों को उचित तरीके से प्रमाणित किया जाए। कई देशों में किसानों को प्रमाण काफी कठिनाई से मिलता है। यह सरलता से मिल सके, इस पर भी चर्चा की गई। यहां यह बताना उचित ही होगा कि अभियान व संगठन के 25 वषो± के इतिहास में यह पहली कांग्रेस थी, जो पूरी तरह से किसानों को समर्पित थी। जैविक खेती का प्रभाव इतना बढ़ रहा है कि आज अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन तथ जर्मनी में जैविक बीयर व वाइन तक बिक रही है। अमेरिका में रासायनिक खादों के अंधाधुंध उपयोग का आज कुप्रभाव दिखने लगा है। अमेरिका में हर दिन 48 एकड़ जमीन इसी कारण से बंजर हो रही है। यही कारण है कि वहां जैविक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है। सच तो यह है कि अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा व जर्मनी में जैविक खेती के लिए सरकारें किसानों को सिब्सडी भी देती हैं। जबकि भारत में तो सिब्सडी ही खत्म करने पर जोर दिया जा रहा है। जैविक खेती के खिलाफ एक नया अभियान भी चल रहा है। फसलों को जेनेटिक परिवर्तन के इस अभियान के खिलाफ जैविक खेती के समर्थकों ने इस बार एक डॉलर की रकम जुटाकर अभियान शुरू किया। फसलों के जीन सुधार का सबसे बड़ा खतरा पारंपरिक जैव विविधता के नष्ट होने का है। लेकिन अब जैविक खेती के समर्थकों ने इसके खिलाफ अभियान शुरू कर दिया है। इसकी अनुगूंज पश्चिमी देशों में तो जरूर सुनी जाएगी लेकिन भारत में यह आवाज सुनी जाएगी या अनुगूंजित होगी? इस पर संदेह ही है। लेकिन इतना तय है कि छोटे-छोटे संगठन अपनी तरह से इस अभियान का अलख जगाए रखेंगे। पारंपरिकता में विश्वास रखने वाले भारतीय समाज को इसे स्वीकार करने में कोई दिक्कत नहीं होगी। ऐसा जैविक अभियान चलाने वाली दुनिया भी मानती है। --
हिन्दुस्तान : 18 सितम्बर 2002

1 comment:

  1. महोदय जैविक खेती के सन्दर्भ मैं बहुत ही रोचक और सारगर्भित लेख प्रस्तुत किया है . यह बड़ी विडंबना है हमारे देश मैं पाश्चात्य और आधुनिकीकरण की अंधी दौड़ और तात्कालिक लाभ प्राप्त करने के निजी स्वार्थों के चलते परंपरागत ज्ञान और क्रियाकलापों की अनदेखी की जा रही है . रासायनिक खेती के दुष्प्रभाव सामने आने के बाद भी समय रहते सचेत होने की कोशिस नहीं कर रहें हैं जबकि आज पाश्चात्य देश जैविक खेती की और तेजी से अग्रसर हो रहे हैं . हमारी सरकार भी गोवर खाद और जैविक आधारित परंपरागत खेती के स्थान पर रासायनिक खेती को बढावा दिए जा रही है , इसी तरह देश की आयुर्वेदिक चिकित्षा पद्धति के स्थान पर साइड इफेक्ट वाली रासायनिक दवाओं वाली अलोपेथी चिकित्षा पद्धति को बढावा दे रही है , लोर्ड मैकोले की शिक्षा पद्धति को अभी भी ढोए जा रहें है . देश के लोग भौतिक सुखों पर आधारित पाश्चात्य जीवन शैली को तेजी से अन्धानुकरण कर रहे हैं . जैसे आपने कहा की इतिहास अपने आप को दोहराता है अतः देर से ही सही अपने देश मैं भी प्राचीन ज्ञान आधारित स्वर्णिम इतिहास पुनः दोहराया जाएगा .

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