Tuesday, June 23, 2009

खाद्य सुरक्षा के लिए जरूरी है जैविक खेती

दिल्ली में आयोजित जैविक खेती अभियान का सम्मेलन
मॉनसेंटों जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बीजों और खाद से हो रही खेती के दुष्परिणाम देश के हर इलाके में दिखने लगे हैं। हर साल पंजाब और हरियाणा में भूजल का स्तर लगातार नीचे जा रहा है। इसके जरिए होने वाली खेती की खाद-पानी और कीटनाशकों की भूख लगातार बढ़ती जा रही है।
डंकेल प्रस्तावों के बाद 1993 में इसके विरोध में राजनीतिक दलों ने इसके खिलाफ सवाल उठाए थे। उनकी चिंताओं में ये समस्याएं भी थीं। लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि कम से कम सियासी दलों के लिए ये चिंताएं सिरे से ही गायब होती जा रही हैं। ऐसे में जैविक खेती अभियान के संस्थापक क्रांति प्रकाश ने जब राजधानी दिल्ली में पांच और छह जून को खाद्य सुरक्षा को लेकर सम्मेलन आयोजित किया तो ये उम्मीद कम ही थी कि राजनीति की दुनिया से लोगों की शिरकत हो। लेकिन सीपीआई के वरिष्ठ नेता और अखिल भारतीय किसान महासभा के महासचिव अतुल कुमार अनजान, मुजफ्फरपुर से जनता दल यूनाइटेड के सांसद कैप्टन जयनारायण निषाद और आंध्र प्रदेश कांग्रेस कमेटी के महासचिव के यादवरेड्डी ने जब पसीना और उमस से भरे सम्मेलन हॉल में घंटों तक शिरकत की तो ये उम्मीद जरूर बंध गई कि आने वाले दिनों में देश की खाद्य सुरक्षा की चिंताओं से सियासी दल अलग नहीं रहेंगे। क्रांति प्रकाश ने अपने शुरूआती भाषण में जिक्र किया कि ये सच है कि रासायनिक खादों और कीटनाशकों के सहारे हम देश की जरूरत के लिए अन्न उपजा रहे हैं। लेकिन पर्यावरण और अपने परिस्थितिकी तंत्र को इसके लिए जो कीमत चुकानी पड़ रही है, उसकी भरपाई मुश्किल है। उन्होंने किसानों से आह्वान किया कि देर ना हो जाए, इसके लिए जरूरी है कि वे जल्दी से जल्दी जैविक खेती की ओर लौट आएं।लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या परंपरागत खेती की ओर लौटना इतना आसान है। के यादवरेड्डी, जो खुद भी जैविक खेती अभियान से जुड़े हुए हैं, ने साफ कर दिया कि एकाएक इस खेती की ओर लौटना देश की खाद्य जरूरतों के मुताबिक अन्न उत्पादन में कमी ला सकता है। लिहाजा हमें किसानों के लिए ऐसा उपाय खोजना होगा ताकि हम अपने परिस्थितिकीय संतुलन को बचाए और बनाए रखते हुए देश की करीब सवा अरब जनसंख्या का पेट भरने का भी इंतजाम कर सकें। अतुल अनजान ने तो सम्मेलन में अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी की रिपोर्ट का जिक्र करते हुए सवाल ही उछाल दिया कि देश के लिए ज्यादा जरूरी उन करीब चौरासी लाख लोगों का पेट भरना है या फिर जैविक खेती की ओर लौटना। मनमोहन सरकार द्वारा गठित अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि देश की करीब 83 करोड़ 65 लाख जनसंख्या रोजाना बीस रूपए से भी कम कमाई कर पाती है। हालांकि अतुल अनजान ने जैविक खेती की संभावनाओं और जरूरत को नकारा भी नहीं। लेकिन ये भी सच है कि अगर सरकारें किसानों को जैविक खेती के चलते दो-चार साल तक होने वाले नुकसान की भरपाई और देश को खिलाने के लिए अन्न का इंतजाम कर सकें तो किसान फिर से परंपरागत खेती की ओर लौट सकते हैं। उन्होंने साफ कर दिया कि इस पर ध्यान दिए बिना जैविक खेती की ओर किसानों की वापसी आसान नहीं होगी। लेकिन जयपुर के मोरारका फाउन्डेशन के शुभेंदु दास ने इस बात से इनकार किया कि जैविक खेती में उत्पादन कम होता है। अपने अनुभवों की चर्चा करते हुए शुभेंदु ने कहा कि वास्तव में जैव उत्पाद देखने में छोटे या कम जरुर लगते है लेकिन उनका वजन ज्यादा होता है.ऐसा नहीं कि जैविक यानी परंपरागत तरीके से खेती हो नहीं रही है। लेकिन इससे पैदा हो रही फसलों का बाजार नहीं है। सम्मेलन में राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, बिहार, झारखंड हरियाणा और उत्तरप्रदेश समेत कई राज्यों से आए किसानों का यही सवाल था। किसानों का ये सवाल भी सही है। लेकिन ये भी सच है कि आज महानगरों में जैविक खेती के उत्पाद फैशन और लाइफ स्टाइल से जुड़ते जा रहे हैं। इसमें कभी गांधीजी की सादगी की प्रतीक रही खादी और फैब इंडिया जैसे देसी ब्रांड भी मददगार साबित हो रहे हैं। और प्रचार भी इसी का हो रहा है। पत्रकार उमेश चतुर्वेदी इस परिपाटी पर सवाल उठाने से नहीं हिचके। उनके मुताबिक पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के गांवों में रासायनिक खाद और कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से हो रहे दुष्प्रभावों से निकलने के लिए किसान फिर से परंपरागत खेती की ओर लौट रहे हैं। उन्होंने अपने गांव और आसपास में इसके चलते हो रहे बदलाव का जिक्र करते हुए कहा कि अब सवर्ण लोग अपने खेतों में दलित वर्ग से अपनी भेंड़ें और सूअर रात-रात भर तक ठहराने के लिए गुजारिश करने से गुरेज नहीं कर रहे। उन्होंने कहा कि मीडिया में इन प्रयासों को उचित जगह मिलनी चाहिए।गुजरात की अमित ग्रुप ऑफ़ कंपनीज के अमिताभ के सिंह ने भी इस मसले पर सरकार और नीति निर्धारकों का ध्यान जैविक खेती की ओर खींचने की जरुरत पर जोर दिया। जैविक खेती को लेकर गुजरात में काम कर रहे अमिताभ के मुताबिक जैविक खेती से अच्छी गुणवत्ता वाला पौष्टिक अन्न और फल उपजाया जा सकता है, वह भी खेत और पर्यावरण को नुकसान पहुचाये बिना। तमिलनाडु में चार सौ एकड़ में जैविक खेती करा रहीं डॉक्टर पवित्रा ने रासायनिक खेती से उपजाए गए अन्न, फल और सब्जियो के कुप्रभावों पर चिंता करते हुए इससे होने वाले नुकसान का सिलसिलेवार जिक्र किया। अमरावती विश्वविद्यालय की डॉक्टर अलका कर्वे ने जैविक खेती को लेकर अपने शोध का जिक्र करते हुए किसानों को बताया कि इस परंपरागत खेती की ओर लौटना हमारी मजबूरी नहीं, वक्त की जरूरत है।दो दिनों तक चले इस सम्मलेन में जैविक खेती के बारे में ज्यादा से ज्यादा लोगों को सही जानकारी देने के लिए काम करने का प्रस्ताव पारित किया गया। जैविक खेती अभियान योजना आयोग को अपनी रिपोर्ट और मांग पत्र भी पेश करने जा रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि किसानों की आत्महत्या की राजनीति से जूझ रही राजनीति और देश इस ओर सकारात्मक ढंग से सोचने की जहमत उठाना जरूर शुरू कर सकेगा।

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